________________
हो एवं गुरु की आज्ञा से साधु समूह (श्रमणगण) को लेकर पृथक् विहार करते हों, वे गणधर कहलाते हैं।
इस प्रकार विशालसंघ से आचार्य की आज्ञानुसार निर्धारित श्रमणों के साथ अपने सम्यक् उद्देश्यों की पूर्ति हेतु अलग विचरण करे, वह श्रमणों का समूह तथा उनकी परम्परा को 'गण' कहते हैं तथा उनके प्रधान गणधर, गणाचार्य या गणी कहे जाते हैं। डॉ. गुलाबचन्द चौधरी के अनुसार गण का अर्थ बड़ी इकाई था, जिसका प्रबन्ध वे आचार्य करते थे जो कि अत्यन्त श्रद्धालु, सत्यवान, मेधावी, स्मृतिवान, बहुश्रुत एवं समभाव वाले होते थे। गणों का नाम प्रायः आचार्य के नाम से होता था।
मूलाचार में गण, गच्छ एवं कुल-इन शब्दों के ही उल्लेख और उसकी परिभाषाएँ मिलती हैं। परन्तु आचार्य वट्टकेर ने गण आदि निर्माण के प्रति बड़ा क्षोभ प्रकट करते हुए कहा है-'गण में प्रवेश करने की अपेक्षा विवाह कर लेना अच्छा है। विवाह से राग की उत्पत्ति होती है पर गण तो अनेक दुःखों की खान है। (इस युक्ति के पीछे भी शायद यही भाव है कि-'हंसों की पंक्ति नहीं होती और साधु जमात बनाकर नहीं चलते)।
डॉ. गुलाबचन्द चौधरी के अनुसार दक्षिण भारत में इसलिए दीर्घकाल तक भद्रबाहु के बाद किसी संघ, गण या गच्छ का निर्माण नहीं हो सका। इसलिए दक्षिणी जैनधर्म की मान्यता में महावीर के बाद की गुरु परम्परा में वीर नि.सं. 683 अर्थात् लोहाचार्य तक एकएक आचार्य शिष्य परम्परा से चले आये हैं और उनकी किसी शाखाओं, प्रशाखाओं का उल्लेख नहीं मिलता है। बाद में संघ एवं गणादि की उत्पत्ति में भी उन्होंने अपने पूर्वाचार्यों को नहीं लपेटा। गच्छ-गच्छ (गाछ के वृक्ष अर्थ में), ऋषियों के समूह को कहते हैं। सात या तीन पुरुषों के समुदाय को भी 'गच्छ' कहा जाता है। बाद में गच्छ का अर्थ शाखा भी माना जाने लगा। गच्छ के प्रमुख गच्छाचार्य कहलाते हैं । इनका कार्य गच्छ के आचार की रक्षा करते हुए स्वयं श्रेष्ठ आचार का पालन करना है। कुल-एक ही आचार्य की शिष्य सन्तति (परम्परा) का नाम कुल है। सर्वार्थसिद्धि के अनुसार दीक्षा देने वाले आचार्य की शिष्य परम्परा को 'कुल' कहते हैं। स्थानांग टीका के अनुसार कई गच्छों के समूह से 'कुल' का निर्माण होता है। मूलाचार में कहा गया है कि जब कोई श्रमण अन्य आचार्य के पास विशेष अध्ययन आदि के निमित्त जाता था तो वे आचार्य सर्वप्रथम उस नवागन्तुक श्रमण से नाम, गुरु आदि के साथ ही 'कुल' की जानकारी भी प्राप्त करते थे। डॉ. चौधरी के अनुसार 'कुल' आचार्य के शिष्यों के क्रम से चले थे और 14
INITITITIV तुलसी प्रज्ञा अंक 109
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org