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________________ अवलोकन करते हैं, तो प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर अन्तिम तीर्थंकर महावीर तक प्रत्येक के समय में हमें एक सुव्यवस्थित एवं सुसंगठित श्रमण संघ की झलक दिखलाई देती है, किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से अध्यात्मसाधना का संघीकरण तीर्थंकर पार्श्वनाथ के समय से स्पष्ट दिखलाई देता है। तीर्थंकर महावीर ने तात्कालीन अपेक्षाओं को ध्यान में रखते हुए श्रमणसंघ का जो लोकतंत्रात्मक स्वरूप प्रतिष्ठित किया वह अप्रतिम तो था ही, साथ ही इसमें व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास के पूर्ण अवसर भी उपलब्ध थे । संघीय अनुशासन, उसके संचालन की प्रविधियां और व्यवस्थायें उस युग की सर्वोच्च उपलब्धियां थीं। श्रमणसंघ की व्यवस्था गणतन्त्रीय पद्धति पर आधारित थी और यह परम्परा आज तक चली आ रही है। संघ व्यवस्था का मूल लक्ष्य अहिंसा, स्वतन्त्रता, सापेक्षता और संयम के आधार पर आत्मकल्याण करना है। जैन शास्त्रों में संघ के पाँच आधार बताये गये हैं - आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्त्तक, स्थविर और गणधर । जहां ये आधार न हों, वहाँ रहना उचित नहीं है। संघ संचालन का सम्पूर्ण दायित्व इन्हीं आधारों पर होता था । आचार्य शिष्यों को दीक्षा, व्रताचरण और अनुशासन आदि रूप अनुग्रह करने का कार्य करते, उपाध्याय शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन एवं धर्मोपदेश देने का कार्य करते, प्रवर्त्तक संघ का प्रवर्त्तन करते, स्थविर का कार्य मर्यादा का उपदेश एवं आचरण में स्थिर रखना तथा गणधर का कार्य गण की रक्षा करना था। इस तरह इन पाँच स्तम्भों से ही श्रमण संघ की परिपूर्ण प्रतिष्ठा, दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र के पथ का निरन्तर विकास और मुक्ति पथ की साधना सम्भव होती है। श्रमणाचार का विकास क्रमिक हुआ है। इसके पीछे मानव स्वभाव, देश की परिस्थितियाँ और काल का प्रभाव प्रमुख कारण रहे हैं। इसे हम उपलब्ध साहित्य, ग्रन्थ, प्रशस्तियों, पट्टावलियों और उत्कीर्ण-लेख सामग्री द्वारा समझ सकते हैं । साहित्य पर दृष्टि डालने से पता चलता है कि तीर्थंकर महावीर ने अपने जीवनकाल श्रमण संघ के कोई भेद नहीं किये थे । उसका एक सुव्यवस्थित रूप था और इसमें किसी प्रकार का भेदभाव नहीं था । भगवान् महावीर स्वयं कठिन चर्या का पालन करने वाले थे । इनके निर्वाण के काफी समय तक अर्थात् श्रुतकेवली भद्रबाहु ( वीर नि. सं. 492) तक निर्ग्रन्थ महासंघ का सुसंगठित रूप अविच्छिन्न रहा । किन्तु क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार प्रत्येक व्यवस्था में परिवर्तन भी होता है । अखण्ड निर्गन्थ महाश्रमण भी इनसे अछूता नहीं रहा । अतः वीर निर्वाण के 6-7 सौ वर्ष बाद सर्वप्रथम निर्गन्थ महाश्रमण संघ दो परम्पराओं दिगम्बर और श्वेताम्बर में विभक्त हो गया । इस विभाजन के पीछे मत - वैभिन्य की लम्बी कहानी है, किन्तु हम यहाँ उसमें न उलझकर अपने प्रतिपाद्य विषय का विवेचन करना ही अभीष्ट समझते हैं। 12 Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा अंक 109 www.jainelibrary.org
SR No.524603
Book TitleTulsi Prajna 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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