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अपरिग्रह के साथ सत्य का भी बहुत गहरा सम्बन्ध है और परिग्रह का भी बहुत गहरा सम्बन्ध है । मिथ्या या असत्य भाषण के साथ, असत्य आचरण के साथ कारण बतलाये गये, उनमें एक है लोभ के कारण मनुष्य झूठ बोलता है, मायाचार करता है । यह सब परिग्रह लिए होता है। एक परिग्रह की चेतना का परिष्कार होता है, ममत्व की चेतना का परिष्कार किया जाता है तो शायद आचार की बहुत सारी समस्याएं अपने आप सुलझती हैं ।
ऐसा लगता है कि केन्द्र में परिग्रह बैठा है । ममत्व बैठा है । पदार्थ मेरा है, यह स्वीकार हिंसा को भी बढ़ावा देता है, असत्य को भी बढ़ावा देता है, चोरी भी होती है और अब्रह्मचर्य की बात को भी आगे बढ़ाता है । 'पदार्थ मेरा नहीं है और पदार्थ मेरा है' इन दो प्रश्नों पर हम विचार करें। भेदविज्ञान पुष्ट होगा तो पदार्थ मेरा नहीं है, यह धारणा पुष्ट होगी । 'मेरा मन' यह हमारी मति में है तो फिर सारी समस्याएं पैदा हो जाती हैं। मूल दृष्टि से वस्तु को त्यागने पर बल दिया जाता है और उसे प्राथमिकता दी जाती है। आचार की समस्या इसीलिए उलझ रही है और इसीलिए धर्म की तेजस्विता भी कम हुई है कि त्याग पदार्थ के साथ जुड़ गया । त्याग जुड़ना चाहिए पदार्थ की चेतना के साथ । तेरापन यह नम्बर दो की समस्या पैदा करता है किन्तु यह मेरेपन की चेतना है, यह नम्बर एक की समस्या है। पदार्थ की चेतना का परिष्कार करने के लिए यह भेदविज्ञान का सिद्धान्त 'मेरा नहीं है, ' आवश्यक है । इसके प्रति हमारा आचारशास्त्र में दृष्टिकोण कम है और इस पर बल भी कम दिया जाता है । भेदविज्ञान की चेतना को जगाये बिना पदार्थ को छोड़ना भी कैसे हो सकता है? हमारा सारा भोग्य जगत है शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्शात्मक । ये हमारे विषय हैं, भोग्य पदार्थ हैं । त्याग करने की जो प्रथा है, मैं शब्द नहीं सुनूंगा, मैं अमुक रस का सेवन नहीं करूंगा, यह आचार का एक अगं बन गया। मुख्यतः आचार का अंग है विषय का जो विकार है, उस विकार की चेतना का पहले त्याग हो तो विषय का त्याग सुलभ होगा अन्यथा विषय को छोड़ा पर विषय के प्रति वह लालसा नहीं टूटी। हर बार वह चेतना सामने आती है और सताती है ।
पांच इन्द्रियां के जो विषय हैं, जिनके द्वारा हम भोग करते हैं- शब्द सुनना बन्द कर दिया, रूप देखना बंद कर दिया, आंखें बंद कर ली, सूंघना बंद कर दिया, खाना भी छोड़ दिया पर रस नहीं छूटा। विषय छूट गये। इसीलिए दो शब्द जैन साहित्य में प्रमुख रहें - विषय और विकार। पांच इन्द्रियों के 23 विषय हैं और विकार उनके 240 हैं। आचारशास्त्रीय दृष्टिसे विमर्श करें तो हमें सबसे पहले विकार का बोध होना चाहिए और विकार की चेतना का परिष्कार करने की साधना होनी चाहिए। इसके साथ-साथ विषय का वर्जन । यह अधूरी बात हो जाएगी, यदि विकार का परिष्कार करने की साधना नहीं, केवल विषय को छोड़ने की तुलसी प्रज्ञा अप्रेल - सितम्बर, 2000 AM
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