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________________ तुलसी प्रज्ञा अंक 108 दुःख देने वाली अन्य कोई शक्ति इस विश्व में नहीं है। ये अहंकार और ममकार के द्वन्द्व जीव स्वतः अपने में पैदा करता है और उनसे सुखी - दुःखी होता रहता है । यही कारण उसकी 'निजकृत-माया' है। इसे ही 'मन की माया' कहा गया है। साधना के क्रम में सबसे पहले हमारे अहंकार और ममकार छूटने चाहिये । माया का त्याग करने का संकल्प लेकर लोग स्त्री-पुरुष और परिवार को छोड़ देते हैं। घर और व्यापार का त्याग कर देते हैं। परन्तु इन सबके साथ जोड़ने वाली मन की सूक्ष्म आसक्ति नहीं छोड़ पाते। माया के आधार बदल जाते हैं, माया की डोर नहीं टूटती । स्थूल माया को छोड़ना आसान है, परन्तु सूक्ष्म आसक्ति रूप मन की माया को छोड़ना बहुत कठिन है । मन की झीनी माया बड़े-बड़े साधकों, ऋषि-मुनियों और पीरपैगम्बरों को भी साधना से भ्रष्ट कर देती है । जिन्होंने इस झीनी माया पर विजय प्राप्त कर ली, उनका स्थूल पदार्थों का त्याग करना सार्थक हो गया। ऐसा ही साधक संसार के दुखों के ऊपर उठकर सुख प्राप्त कर सकता है। कौन देगा दिशा : कौन बतायेगा गंतव्य ? राग-द्वेष मोह माया के इस संसार पर थोड़ा विचार करें। कल्पना के ये दृश्य किस फलक पर अंकित हो रहे हैं । माया और ममता का यह नृत्य किस मंच पर हो रहा है और राग-द्वेष की ये तरंगें किस जलराशि में उठ रही हैं? इन प्रश्नों के उत्तर बाहर नहीं मिलेंगे । उत्तर पाने के लिये हमें अपने भीतर ही, स्वयं अपनी साक्षी बनकर झांकना होगा। तब हम पायेंगे कि मूढ़ता के ये सारे परिदृश्य मेरी चेतना के फलक पर अंकित हो रहे हैं। माया-ममता की ये बहुरूपिणी नृत्यागंनाएं मेरे मानस-मंच पर ही तो नाच रही हैं, और राग-द्वेष की ये सारी तरंगें मेरी चेतना के सागर को ही अशान्त बना रही हैं। एक वाक्य में कहना चाहें तो 'यहा सारा प्रदूषण मेरे अपने क्षयोपशम भावों में फैल रहा है।' यद्यपि इसमें कोई सन्देह नहीं है कि मेरे भीतर ये सारे उपद्रव मोहनीय कर्म के उदय में हो रहे हैं परन्तु क्या वह कर्म ही दोषी है ? नहीं, इसके लिये मात्र मोहनीय कर्म को दोष देने से काम नहीं चलेगा। संसार में जिसने भी मोह-माया के उस दुष्चक्र में से निकलने का उपाय किया है, उसने मोहनीय के उदय के बावजूद, अपने पुरुषार्थ को जागृत करके उसे परास्त किया है और स्वयं अपना मार्ग बनाया है। जब जो कोई लक्ष्य बनाकर चल पड़ा तब क्षयोपशम उसके लिये सहायक हुआ । क्षयोपशम का उपयोग करने की दिशा और गंतव्य बताने का कार्य क्षयोपशम नहीं करेगा। वह करेगा धर्म | वह करेंगे हमारे संस्कार और वह कार्य करेगा हमारा जागृत पुरुषार्थ । एक छोटे उदाहरण से हम क्षयोपशम की सीमाओं को या उसकी पंगुता को समझने की चेष्टा करेंगे। सुबह सूर्य का थोड़ा सा प्रकाश फैलते ही हमने अपनी खिड़की में से देखा, 64 तुलसी प्रज्ञा अंक 108 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524602
Book TitleTulsi Prajna 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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