________________
जीव के पांच भाव
चार व्यक्ति नदी की ओर जा रहे हैं। हमने कुतूहलवश आगे बढ़कर उनका गंतव्य और मंतव्य जानना चाहा।
पहले व्यक्ति ने बताया, 'पूजा-पाठ करना है, स्नान करने जा रहा हूं।' दूसरे का कथन था, 'मछलियों को आटे की गोलिया खिलाने जा रहा हूं।' तीसरे ने बताया, 'यह जाल नहीं देखते? मछली मारने जा रहा हूं, बच्चों का पेट भरना है।' चौथे व्यक्ति की पीड़ा अलग थी। वह नदी में आत्म-हत्या करने जा रहा था।
चारों को अलग-अलग मंतव्य लेकर एक ही मार्ग पर, एक साथ जाते देखकर हमें आश्चर्य हुआ। हमने पूछ लिया-'आप सब एक साथ ही क्यों निकले हैं? चारों व्यक्तियों का एक ही उत्तर था—'रात के अंधेरे में यात्रा सम्भव नहीं थी। अब जैसे ही उजाला होना शुरू हुआ, हम निकल पड़े हैं।'
___ मैं चकित हूं और निर्णय नहीं कर पा रहा हूं कि सूर्य के माथे पर कौन-सा तिलक लगाऊं? उसके उदित होते ही आदमी पूजा-पाठ के लिये स्नान करने चल पड़ता है या आत्म-हत्या के लिये निकल पड़ता है। उसके प्रकट होते ही लोग मछलियों को दाना चुगाने आते हैं या जाल लेकर उन्हें पकड़ने-मारने के लिये नदी तट पर पहुंचने लगते हैं? वास्तव में सूर्य को किसी भी कार्य में विशेष कारण या प्रेरक निमित्त मानना हमारी भूल होगी। वह तो प्रकाश देता है। सक्रियता का सामान्य निमित्त बनता है। उसके प्रकाश का उपयोग करके लोग अपने-अपने मंतव्यों की पूर्ति के लिये अपना गंतव्य चुनते हैं और घर से निकल पड़ते हैं। इसके लिये सूर्य को प्राणियों के सत्कर्मों का श्रेय नहीं दिया जा सकता और उनके दुष्कर्मों के लिये दोष भी नहीं दिया जा सकता।
आवरणी कर्मों का क्षयोपशम भी जीव को इसी प्रकार कुछ कर गुजरने का अवकाश और प्रकाश देता है । क्षयोपशम स्वयं अंधा है। उसके पास अपनी कोई दिशा नहीं है। 'मेरा उपयोग करके ऐसा करो और यह मत करो' ऐसी कोई शर्त या ऐसा कोई अनुशासन आवरणी कर्मों का क्षयोपशम नहीं लगाता।
क्षयोपशम मेरी अपनी शक्तियों का प्रवाह है जो अनवरत हो ही रहा है। अनादिकाल से मेरी असावधानी से, मेरी संस्कारहीनता के कारण, या मेरी दिशा-हीनता के कारण मैंने अपनी इन शक्तियों का दुरुपयोग करके अपने लिये दुःख, संताप और पीड़ाओं की फसल उगाई है। मैंने सदा स्वयं अपनी राह में कांटे बोये हैं और जब-जब कांटे मुझे चुभे तब-तब मैंने उसके लिये दूसरों को दोष देकर उनके साथ बैर और कलह करके अपने लिये अशान्ति तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2000 AMITTIMITISINI TIONINNY 65
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org