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________________ जीव के पांच भाव दृढ़ सकल्प पूर्वक मेरे अपने वर्तमान के पुरुषार्थ की संलग्नता चाहिए। अपने भव-भ्रमण की कथा के साथ संसार की वास्तविकता का बार-बार चिन्तन करने से मोह की मंदता स्वयं प्राप्त होती है। मोह-निद्रा का अवसान होते ही मन की माया बिखर जाती है । जीव को सन्मार्ग सूझने लगता है । कठिन नहीं है माया की दुविधा को तोड़ना कोई सोता हुआ व्यक्ति सपने में देखे कि उसके बिस्तर में और उसके कमरे में आग लग गई है, चारों ओर सब कुछ सुलग रहा है। हम कल्पना करें कि उस कमरे की आग बुझाने के लिए कितने पानी की आवश्यकता होगी? एक बूंद भी नहीं चाहिए। किसी प्रकार उस व्यक्ति की निद्रा तोड़ देनी है। बस, इतना पर्याप्त होगा । और कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है । नींद खुलते ही उसका सारा भय स्वतः समाप्त हो जायेगा। सारी आग, सारी तपन, और सारा धुआं न जाने कहां विलीन हो जायेगा । वह जो अभी-अभी जल मरने की विभीषिका से आतंकित था, जागते ही अपनी सुरक्षा के प्रति आश्वस्त हो जाएगा। उसे एक सर्वथा नवीन शीतलता का अनुभव होगा । मन की माया का आतंक भी ऐसा ही है। उसकी तपन भी इतनी ही काल्पनिक है । उस आतंक की आग को बुझाना भी इतना ही आसान है। केवल सृष्टि का रहस्य जानने की उत्कण्ठा चाहिए। संसार की वास्तविकता को समझने का कौशल चाहिए। अपनी मोह - निद्रा को नाश करने की भावना चाहिए। माया की महिमा सब गाते हैं। उससे बचने का उपदेश सब एक दूसरे को देते हैं, परन्तु माया के स्वरूप का निर्धारण कुछ कठिन है। माया को परखने का उपाय कोई बिरला ही कर पाता है । दृश्यमान जगत में दिखने वाले प्रकृति के मनोहर दृश्य माया नहीं है। माया तो मन की आसक्ति का नाम है। कबीर ने कहा- 'जो मन को बांध ले, जो मन में बस जाये, वह माया है । ' माया माया सब कहैं, माया लखै न कोय। जो मन से ना ऊतरै, माया कहिये सोय ॥ जैनाचार्यों ने जीव को अज्ञानभाव से या मोहभाव से उत्पन्न, 'मैं और मेरे' की कल्पना पर आधारित, इन अवास्तविक संबंधों को 'अहंकार' और 'ममकार' के नाम से कहा है। किसी दूसरे पदार्थ में 'यह मैं ही हूं' ऐसी कल्पना कर लेना अहंकार है । किसी दूसरे 'जीव या पदार्थ में 'यह मेरा है' ऐसी मान्यता ममकार है। अहंकार और ममकार ही जीव के लिये दुःख और क्लेश के जनक हैं। उसे सुख JILIV 63 तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2000 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524602
Book TitleTulsi Prajna 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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