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________________ तुलसी प्रज्ञा अंक 108 विषय में प्रशिक्षित कर सकें, विविध प्रकार के नियमों को उन्हें समझा सकें तथा अपने माधुर्य, शील, ओज आदि गुणों से प्रभावित करते हुए उनकी भावना में वृद्धि कर सकें-इन सबके लिए उनकी प्रज्ञप्ति कुशलता विशेषतः अपेक्षित है।४ ।। जो निरन्तर संपर्क में आने वाले लोगों को अपनी शीलसंपन्नता, मधुरव्यवहार एवं संघ और संघपति के प्रति प्रगल्भ भक्तिभावना से आप्लावित कर सकें वही संघाटक अतिशय कुलों में प्रवेश के अर्ह होता है। स्थापना कुलों की प्रशिक्षण-विधि __ स्थापना कुल विशिष्ट भावना वाले घर होते हैं पर उनके सब सदस्यों को सब विधि नियमों का सदा ज्ञान हो ही, यह आवश्यक नहीं। अत: जो श्रमण प्रियधर्मा, गुरु-भक्त एवं वाक्पटु होते हैं वे समय-समय पर उन्हें एषणा के विधि-निषेधों के प्रति जागृत करें, प्रबोध दें, यह आवश्यक हो जाता है। वे यथासमय उन्हें बतायें-देखो, ऐसे म्रक्षित दोष होता है, ऐसे निक्षिप्त, अध्यवतर, स्थापित आदि दोष होते हैं। वे उन्हें स्थविरकल्प तथा जिनकल्प की भिन्न-भिन्न समाचारियों के बारे में प्रशिक्षित करें। यदि उनका प्रशिक्षण पूरा नहीं होता तो खीर, दूध, घी आदि विगययुक्त द्रव्यों को न लेने वाले जिनकल्पिक साधुओं को ही सच्चे साधु मानने लगते हैं, फलतः अन्य साधुओं के प्रति अवज्ञा का भाव आ जाता है , आस्था टूट जाती है। हो सकता है उन्हें वे घी, दूध, दही, खीर आदि द्रव्यों को देना छोड़ दें तो ऐसी स्थिति में शैक्ष, तपस्वी, ग्लान तथा आचार्य आदि के योग्य द्रव्यों के अभाव एवं उनकी परितापना का प्रसंग आ सकता है। इसी प्रकार उन कुलों में यह भी प्रशिक्षण देना आवश्यक हो जाता है कि भिक्षा देने का स्थान आत्मोपघात, प्रवचनोपघात तथा संयमोपघात से रहित होना चाहिए। दाता को भिक्षा देने से पूर्व किस प्रकार गमनागमन करना चाहिए१६ कि कैसे आहार का दान देने से महानिर्जरा एवं तीर्थंकर गोत्र जैसे शुभ कर्म का बन्ध होता है और कैसे दान से स्वल्प आयुष्य का। स्थापना कुल जितने अधिक प्रशिक्षत होते हैं, साधुओं के एषणा आदि दोषों की सम्भावना उतनी ही कम हो जाती है । विधिवत् प्रशिक्षण प्राप्त करने पर उनकी श्रद्धा एवं ज्ञान में तो वृद्धि होती ही है, साथ ही घी आदि प्रायोग्य द्रव्यों में भी वृद्धि होती है। निशीथ तथा बृहत्कल्प भाष्य में छह गाथाओं में प्रशिक्षण के मुख्य विषयों का तथा उसके प्रयोजन का सुन्दर एवं हृदयाकर्षक वर्णन हुआ है ।२८ स्थापना कुलों में भिक्षा ग्रहण विधि एवं ग्रहणकाल __ अतिशय कुलों में प्रविष्ट होने वाले श्रमण-संघाटक को ज्ञात रहना चाहिए कि अमुक घर में प्रतिदिन प्रायः कितने चावल, मूंग आदि बनाये जाते हैं, कितने पलप्रमाण घी, 54 STITI WINITIANI TINVITTINAINITIATIVINITV तुलसी प्रज्ञा अंक 108 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524602
Book TitleTulsi Prajna 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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