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________________ भाष्यकाल में स्थापना कुल दूध आदि लगते हैं, कितने व्यक्ति भोजन करते हैं। इसी प्रकार मिर्च, जीरे, हींग आदि मसाले, लवण सोंठ आदि कटु द्रव्य कितने प्रमाण में काम में आते हैं । असन, खादिम, स्वादिम आदि द्रव्यों के परिणाम, गणना, क्षार स्फोटित द्रव्यों की मात्रा आदि के विषय में सम्यक् जानकर वह उनको उचित मात्रा में ही ग्रहण करें। यदि परिमित भोजन बनता हो तो वहां पर अधिक मात्रा में ग्रहण न किया जाए।१९ खाद्य पदार्थ मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं-संचयिक और असंचयिक। संचयिक द्रव्य-घी, गुड़, मोदक आदि को प्रचुर मात्रा में प्रतिदिन न लिया जाए । ग्लान, अतिथि आदि विशिष्ट प्रयोजन से अथवा कदाचित् दाता के प्रबल आग्रह को देखकर ही ग्रहण करे। असंचयिक द्रव्य–दूध, दही, चावल, सूप आदि यदि प्रभूत हों तो यथावश्यक प्रतिदिन भी लिये जा सकते हैं ।२० अतिशय कुलों में भोजन वेला के अनुसार प्रवेश करे। किसी घर में एक प्रहर काल में वेला होती है, किसी के डेढ़ अथवा दो प्रहर में। अतिशेषी श्रमण उनकी बेला के अनुसार ही गोचराग्र के लिए प्रविष्ट हों। यदि एक बस्ती में अनेक गच्छ सहवास करते हों तो स्थापना कुलों की विभाग व्यवस्था कर ली जाए कि इतने घरों में अमुक गच्छ के साधु जाएंगे तथा अमुक घरों में अमुक गच्छ के । यदि स्थापना कुल संख्या में कम हो तो दिनों का विभाग कर ले-क गच्छ के साधु प्रथम दिन जाएंगे, ख के द्वितीय दिन आदि।२२ स्थापना कुल की स्थापना न करने के दुष्परिणाम यदि आचार्य अतिशय कुलों की स्थापना न करे अथवा सभी साधु स्वेच्छा से सब घरों में गोचरी-पानी के लिए जाते रहें तो इससे क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं, इसका संक्षिप्त चित्रण करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं किं कारणं चमढणा, दव्वखओ, उग्गमो वि य न सुज्झे। गच्छम्मि निययं कज्जं, आयरिय-गिलाण-पाहुणए।२३ १. चमढ़णा-यदि एक श्राद्ध कुल में निरन्तर अलग-अलग श्रमण-श्रमणियां जाते रहें तो श्रावक जन उद्विग्न हो जाते हैं। मलयगिरि ने इसका बहुत सुन्दर चित्रण किया है-एक साधु आया, बोला- रोगी का सिर दुखता है, चीनी दो। दूसरा आया, बोला- मेरे पेट में जोर से पीड़ा हो रही है, दही और करम्ब चाहिए। वे दो लौटे, इतने में तीसरा आया, बोला-आज संत दिल्ली दर्शन कर लौट रहे हैं, उनकी भक्ति करनी है। तुम्हारे दूध गर्म होगा क्या? चौथा आया, उसने आचार्य के लिए कुछ मांग की। यदि एक ही घर में निरन्तर सब जाने लगें तो गृहस्थ सोचेगा-आखिर मैं अकेला ही क्या-क्या दूं? अथवा क्या पता वास्तव में यह आचार्य के लिए ले जा रहे हैं या स्वयं के लिए? इस प्रकार उद्विग्न हो जाने से वे तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2000 AMITTINITINITI ATIVITITIV 55 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524602
Book TitleTulsi Prajna 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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