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________________ भाष्यकाल में स्थापना कुल का प्रवर्तन करना। भाष्यकालीन परम्परा का निरूपण करते हुए आचार्य मलयगिरि बताते हैं-गीतार्थ साधु अन्य सब साधुओं को आमंत्रित करते-आर्यों ! आओ, क्षमाश्रमण स्थापना का प्रवर्तन करेंगे। जब सभी श्रमण आकर, वन्दना कर बद्धांजलि बैठ जाते तब आचार्य क्षेत्रप्रत्युपेक्षकों में पूछते-कहो, कौन से घरों में प्रवेश करें और कौन से घरों में नहीं? फिर क्षेत्र प्रत्युपेक्षकों के बताए अनुसार आचार्य स्थापना करते जिसमें मामाक आदि कुलों को सर्वथा वर्जित किया जाता तथा अतिशय कुलों को एक गीतार्थ संघाटक के लिए स्थापित किया जाता। स्थापना कुलों में प्रवेश करने की अर्हता __ विशिष्ट कुलों में प्रवेश करने वाले साधु-संघाटक की कई कसौटियां भाष्यकार ने निर्धारत की है। उनमें से कुछ ये हैं १. गीतार्थ-गीतार्थ श्रुतचक्षु संपन्न होते हैं । वे उद्गम, उत्पादन आदि एषणा दोषों के सम्यक् परिज्ञाता, उत्सर्ग और अपवाद पद के सम्यक् विश्लेषक होते हैं। स्थापना कुलों में प्रवेश करने वाला संघाटक यदि अपेक्षित विधि-निषेधों का प्रामाणिक एवं पुष्ट ज्ञान नहीं रखता, द्रव्य के गुण-दोषों का क्षेत्र, काल एवं विविध अवस्थाओं के अनुसार भलीभांति निर्धारण नहीं कर पाता तो वह प्रायोग्य और अप्रायोग्य द्रव्य में विवेक नहीं कर सकेगा, अतः अतिशय कुलों में गीतार्थ साधु ही गोचरचर्या के लिए जाते। २. विशिष्ट सेवाभावी-स्थापना कुल का विधान आचार्य, शैक्ष, प्राघुर्णक, ग्लान आदि के लक्ष्य से किया गया है। यदि उनकी सेवा में विशेष रूप से प्रवृत्त साधु गोचरी के लिए जाते हैं तो उन्हें ज्ञात रहा है कि अभी आचार्य आदि के लिए घृत आदि स्निग्ध द्रव्य की अपेक्षा है, आज उन्हें द्राक्षा, शर्करा आदि मधुर द्रव्य की अपेक्षा है अथवा सौंठ, काली मिर्च, त्रिकटु आदि औषध द्रव्यों की अपेक्षा है तथा अमुक द्रव्य अमुक घर में एषणीय अवस्था में प्राप्त हो जाएगा। अतः स्थापना कुल में वैयावृत्यकार साधु ही प्रवेश करते।" वैयावृत्य करने वाले की समस्त अर्हताएं-आलस्य, निद्रा एवं प्रमाद का वर्जन, उपशान्तकषाय, कुतूहल वर्जन, सूत्र और अर्थ से प्रतिबद्ध का अभाव आदि सभी उन साधुओं में होनी चाहिए। बृहत्कल्पभाष्य की टीका में वैयावृत्य करने वाले की अर्हताओं का सुन्दर, सरल एवं मनोहारी वर्णन किया गया है। 3. प्रज्ञापन --पटु-स्थापना कुल में प्रविष्ट होने वाले श्रमण प्रज्ञापन-पटु होने चाहिए। वे स्थापना कुलों में निरन्तर जाते हैं, उनकी भावना का उतार-चढ़ाव, संघ की भिन्न परिस्थितियों में होने वाली भिन्न-भिन्न आवश्यकताओं आदि का उन्हें अच्छी तरह ज्ञान होता है। वे जब कभी अवसर हो उन कुलों के गृहस्वामियों तथा अन्य छोटे-बड़े सदस्यों को एषणा आदि के तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2000 INNINITIVITINITIANIIIIIIIIIV 53 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524602
Book TitleTulsi Prajna 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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