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तुलसी प्रज्ञा अंक 108 स्थापना कुल का अभिप्राय -
स्थापना कुल की व्याख्या अनेक दृष्टिकोणों से हो सकती है। स्थापना कुल का एक अभिप्राय है-स्थाप्य कुल अर्थात् वे कुल जो सामाजिक दृष्टि से नीच अथवा घृणित समझे जाते हैं। जैसे डोम्ब, कल्लाल, चर्मकार, नट आदि। कर्म, शिल्प अथवा जाति से भिन्न-भिन्न कुल घृणित हो सकते हैं पर इनका विस्तृत विवेचन यहां अभीष्ट नहीं। इन स्थाप्य कुलों में जाने से तीर्थ के अवर्णवाद, विपरिणाम आदि की संभावना रहती है, अतः देश और काल की अपेक्षा इनका वर्जन अपेक्षित हो जाता है।
__ लोकोत्तर दृष्टि से स्थापना कुल का अभिप्राय उन कुलों से है जहां साधुत्व की दृष्टि से आहार आदि के लिए जाना उचित नहीं। भाष्यकार ने उनकी व्याख्या-साधुठवणाए वा ठविज्जंतित्ति ठवणकुला सेज्जातरादित्यर्थ-कहकर की है। इस व्याख्या के अनुसार उपाश्रय के अत्यन्त निकटवर्ती घर, दानश्राद्ध, अभिगमश्राद्ध, अविरत अभिग्राहिक मिथ्या दृष्टि मामक तथा अचियत्त आदि कुलों का ग्रहण किया गया है। इनके वर्णन का मुख्य हेतु है-एषणा दोषों की सम्भावना तथा आत्मरक्षा । स्थापना कुल का तीसरा प्रकार है-अतिशय कुल जहां आचार्य, उपाध्याय, ग्लान, प्राघुर्णक आदि के प्रायोग्य अतिशय द्रव्यों की उपलब्धि होती है। समाज में सब घरों की स्थिति समान नहीं होती। कुछ घरों में भावना कम होती है, आर्थिक एवं द्रव्य-उपलब्धि की दृष्टि से ठीक होते हैं। कुछ लोग दानश्राद्ध करने वाले तो होते हैं पर आर्थिक दृष्टि से कमजोर होने के कारण स्निग्ध, मधुर आदि द्रव्य वहां उपलब्ध नहीं होते। कुछ घर भावनात्मक एवं आर्थिक दोनों दृष्टि से कमजोर होते हैं और कुछ घर दोनों दृष्टि से समृद्ध । बड़े संघों में निरन्तर कुछ विशिष्ट द्रव्यों की अपेक्षा रहती है-वहां कोई ग्लान होता है, कोई तपस्वी, कुछ शैक्ष होते हैं और कुछ अतिथि। आचार्य के लिए भी आहार के वैशिष्ट्य का प्रावधान है, क्योंकि वे गण के निर्वाहक एवं शासन के मुख्य सूत्रधार होते हैं। उनका दीर्घतर जीवन एवं स्वास्थ्य संघ की अधिकतम परिपालना एवं तीर्थ की श्रीवृद्धि के लिए अनिवार्य है । ऐसी स्थिति में कुछ ऐसे घरों का निर्धारण करना आवश्यक हो जाता है जहां इन सबके प्रायोग्य स्निग्ध-मधुर द्रव्य, औषध-भैषज आदि प्राप्त हो सके तथा जो दानश्राद्ध भी हों। इन घरों में हर साधु गोचरी के लिए नहीं जा सकता। अत: अन्य साधुओं के लिए स्थाप्य-वर्जनीय होने के कारण उन अतिशय कुलों को भी स्थापना कुल कहा जाता है। सम्प्रति उन्हीं के विषय में किञ्चित विवक्षा है। स्थापना कब और कहां?
प्राचीन काल में आचार्य किसी नई बस्ती, ग्राम, नगर आदि में प्रवेश करते तो चैत्यवन्दन-ऐर्यापथिक, कायोत्सर्ग इत्यादि के अनन्तर उनका महत्त्वपूर्ण कार्य होता---स्थापना 52 AMITTINITION
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