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धर्म और कर्त्तव्य : आचार्य भिक्षु की दृष्टि में
आचार्य महाप्रज्ञ ने 'भिक्षु विचार दर्शन' और 'अहिंसा तत्व दर्शन' जैसी कृतियों में आचार्य भिक्षु की जीवन दृष्टि को स्पष्ट किया। आचार्य भिक्षु के जीवन-दर्शन पर मुख्यत: अध्यात्म की दृष्टि से विचार हुआ है। इस कारण यह भ्रम फैल गया कि उनका जीवन दर्शन सामाजिक सहयोग का विरोधी है। एक महाव्रती होने के नाते आचार्य भिक्षु ने अपनी मर्यादा में रहकर आध्यात्मिक विचार को ही मुख्यता दी, यह सत्य है। किन्तु उनकी दृष्टि के मर्म तक जायें तो कुछ फलित इस प्रकार होंगे
1. लौकिक कार्यों के औचित्य-अनौचित्य का विचार तत् तत् विभाग के नियमों के आधार पर करना चाहिये। जिस प्रकार अध्यात्म के क्षेत्र में आगम की आज्ञा का उल्लंघन अवांछनीय है उसी प्रकार सामाजिक संस्थाओं के क्षेत्र में तत् तत् संस्थाओं के नियमों का उल्लंघन अवांछनीय है । यह समझ लेने पर समाज की व्यवस्था में किसी प्रकार की असंगति नहीं आएगी।
__2. सामाजिक प्राणी के जीवन के दो पक्ष हैं-व्रत और अव्रत। अपरिग्रह व्रत है, धनोपार्जन अव्रत है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि एक गृहस्थ, क्योंकि धनोपार्जन करने की छूट रखता है इसलिए वह किसी भी प्रकार के साधनों से धनोपार्जन कर सकता है। धनोपार्जन करने में उसे देश के कानून का पालन तो करना ही है, साथ ही शोषण जैसी क्रूरता से भी बचना है।
3. अध्यात्म के नियम शास्त्र से जुड़े हैं। एक ही राष्ट्र अथवा समाज के व्यक्ति भिन्न-भिन्न शास्त्रों में आस्था रख सकते हैं। इसके लिए उन्हें धार्मिक स्वतन्त्रता देनी होगी। सामाजिक नियम पूरे समाज के लिए बनते हैं। किसी एक सम्प्रदाय विशेष के व्यक्तियों के लिए नहीं। अतः सामाजिक नियमों को धर्म से नहीं जोड़ा जा सकता। जिन मजहबी राज्यों में ऐसा किया जाता है वहां अल्पसंख्यक समुदाय के लोग धार्मिक स्वतन्त्रता का उपयोग नहीं कर सकते।
गंभीरता से विचार करें तो आचार्य भिक्षु की दृष्टि सामाजिक व्यवस्था में बाधक न होकर, साधक ही है। आचार्य महाप्रज्ञ को यह श्रेय जाता है कि उन्होंने आचार्य भिक्षु की अध्यात्मप्रधान दृष्टि को सुरक्षित रखते हुए भी उसके सामाजिक पक्ष को अच्छी प्रकार रेखांकित किया है जो कि वर्तमान युग की मांग भी है।
विभागाध्यक्ष जैन विद्या और तुलनात्मक धर्म एवं दर्शन
जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2000
ATWITTI TINITINATIONALITIN 41
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