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________________ तुलसी प्रज्ञा अंक 108 उपसर्ग करे तो हम उसे दण्डित नहीं करते अपितु उस उपसर्ग को समभावपूर्वक सहन करने में ही अपना हित मानते हैं । ऊपर हमने सात बिन्दुओं को सामने रखकर सामाजिकता और अध्यात्म के बीच भेद बताया। किन्तु भेद के पीछे अभेद भी छिपा रहता है । इस अभेदपक्ष का दर्शन हम अध्यात्म के संघ - व्यवस्था में देख सकते हैं । 1. संघ का संविधान समय-समय पर बदलता रहता है। वह शाश्वत नहीं है । इसका कारण यह है कि संघ सामूहिक साधना का माध्यम है और जहां सामूहिकता का प्रश्न है वहां अध्यात्म में भी सामाजिकता की छाया आ ही जाती है। इस संघीय नियमों का निर्माण संघ के सदस्य परस्पर विचार-विनिमय द्वारा करते हैं । 2. साधु- संघ के नियम भी समय के साथ बदलते रहे हैं । शुद्ध अध्यात्म का सम्बन्ध जिन नियमों से हैं, वे मौलिक हैं । किन्तु व्यवहार में उनका विनियोग किस प्रकार किया जाय यह देश, काल, परिस्थिति के अनुसार बदलता रहता है। 3. ज्यों-ज्यों हमारी समझ बढ़ती है, अनेक ऐसे नियम हैं जिनका संबंध पहले अध्यात्म से था, बाद में कानून बन जाते हैं। उदाहरणतः पेड़ों का काटना एक समय में केवल अध्यात्म से जुड़ा था। पर्यावरण की चेतना होने पर यह कानून के द्वारा भी अपराध घोषित कर दिया गया । 4. उपादान और निमित्त दोनों एक दूसरे के परिपूरक हैं । आचार्य महाप्रज्ञ ने गरीबी और अमीरी जैसे महत्वपूर्ण विषय को व्यवस्थाजन्य निमित्त के द्वारा उत्पन्न माना, कर्मजन्य नहीं और इस प्रकार उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि सामाजिक मुद्दों में निमित्त की भी मुख्यता होती है । सापेक्षता का तकाजा है कि उपादान और निमित्त को अपने-अपने स्थान पर महत्व दें। इन दोनों में से किसी की उपेक्षा न करें। 5. पर्यावरण के संदर्भ में हमें जैसे-जैसे यह समझ में आ रहा है कि सभी प्राणी और वनस्पतियां मिलकर पर्यावरण की रक्षा करते हैं, वैसे-वैसे सामाजिक दृष्टि भी अध्यात्म दृष्टि के नजदीक आती जा रही है। 6. अध्यात्म में व्यवस्था अपेक्षित नहीं है, यह ऐकान्तिक दृष्टिकोण है। संघ का निर्माण इसीलिए हुआ कि साधक को अनुकूल व्यवस्था प्राप्त हो सके। 7. अध्यात्म और सामाजिकता एक अर्थ में दोनों परस्पर सहायक है। कानून की पकड़ में वाचिक तथा कायिक क्रिया ही आती है । किन्तु वाचिक और कायिक क्रिया का मूल मन में है । मानसिक क्रिया अध्यात्म की पकड़ में आती है । इस प्रकार अध्यात्म सामाजिकता में सहायक बनता है । 40 Jain Education International For Private & Personal Use Only AV तुलसी प्रज्ञा अंक 108 www.jainelibrary.org
SR No.524602
Book TitleTulsi Prajna 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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