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धर्म और कर्त्तव्य : आचार्य भिक्षु की दृष्टि में का उपकार करूंगा या कोई मेरा उपकार करेगा, यह धारणा पारमार्थिक नहीं है। एक व्यक्ति दूसरे का निमित्त तो बन सकता है किन्तु उपादान वह स्वयं ही होता है। जब हम यह कहते हैं कि किसी ने मेरा उपकार किया अथवा मैंने किसी का उपकार किया तो यह कथन निमित्त की अपेक्षा से कहा गया होने के कारण व्यावहारिक ही है, पारमार्थिक नहीं। कसाई पशु का वध करता है। अध्यात्म में अहिंसा का फल यह है कि कसाई के मन से क्रूरता का भाव जाए। पशु मरने से बचे, यह उसका आनुषंगिक फल है।
सामाजिक नियम व्यवस्था को बनाये रखने के लिए होते हैं। व्यवस्था में स्व और पर दोनों की समिष्ट महत्वपूर्ण है, केवल स्व नहीं। समाज व्यवहार पर खड़ा है, परमार्थ पर नहीं। व्यवस्था व्यवहार का विषय है। उसमें निमित्त को गौण नहीं माना जा सकता।
5. समाज का निर्माण मनुष्यों ने किया है। मनुष्य ही समाज के घटक हैं। इसलिए सारा सामाजिक चिन्तन मनुष्य के इर्द-गिर्द घूमता है। मनुष्येतर प्राणियों की भी यदि समाज में चिन्ता होती है तो इसलिए कि वे प्राणी मनुष्य के लिए उपयोगी हैं।
__ अध्यात्म के नियम आत्मा को केन्द्र में रखते हैं, मनुष्य को नहीं। मनुष्य भी अध्यात्म की दृष्टि में यदि विशिष्ट है तो इसलिए कि आत्मा की जैसी उपासना मनुष्य कर सकता है वैसे दूसरे प्राणी नहीं। इसलिए संयमी मनुष्य तो विशिष्ट है। जिसे देवता भी नमस्कार करते हैं। किन्तु शेष सभी प्राणी समान हैं। उनमें से किसी एक के हित के लिए किसी दूसरे के हित का बलिदान नहीं किया जा सकता। किन्तु सांसारिक व्यवहार 'जीवो जीवस्य भोजनम्' के आधार पर ही चलता है। इसीलिए वहां पूर्ण अहिंसा संभव नहीं है।
6. सामाजिकता का लक्ष्य ऐसी व्यवस्था देना है जिसमें सभी अधिक से अधिक सुविधा प्राप्त करते हुए अपना जीवनयापन कर सके। निश्चय ही इसके लिए कुछ कर्त्तव्य निर्धारित किये जाते रहे । उदाहरणत: वृद्धों की सेवा होनी चाहिये। विकलांगों को अतिरिक्त सहायता मिलनी चाहिये। किसी के साथ अन्याय नहीं होना चाहिये।
अध्यात्म जीवन का उद्देश्य सुख-सुविधाएं जुटाना न मानकर आत्मा को निर्मल बनाना मानता है। इसलिए अध्यात्म सुख-सुविधाओं पर बल न देकर तपस्याओं पर बल देता है। इसीलिए श्रेयस् और प्रेयस् को परस्पर विरोधी माना गया है-श्रेयश्च प्रेयश्च विपरीतमेतौ'।
___7. व्यवस्था का सम्बन्ध समूह से है। यदि कोई एक व्यक्ति व्यवस्था में विघ्न डालता है तो उसे व्यवस्था के हित में बल-प्रयोग पूर्वक दण्डित भी करना होता है। यह सामाजिक दायित्व है।
अध्यात्म का क्षेत्र मुख्यत: व्यक्तिगत है। अध्यात्मसाधना में यदि कोई हमारे लिए तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2000 AANI LI TINITIAWITTITLY 39
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