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धर्म और कर्त्तव्य : आचार्य भिक्षु की दृष्टि में इन सात बिन्दुओं पर थोड़े विस्तार से विचार करना आवश्यक है।
1. अग्नि उष्ण है, इसका ज्ञान प्रत्यक्ष के द्वारा हो जाता है। जहां धुआं है वहां अग्नि है, यह ज्ञान भी अनुमान प्रमाण के द्वारा हो जाता है। किन्तु पुण्य से स्वर्ग मिलता है और पाप से नरक मिलता है-यह ज्ञान न प्रत्यक्ष के द्वारा होता है, न अनुमान द्वारा। पुनर्जन्म के साथ जुड़ा हुआ कर्म-सिद्धान्त भी प्रत्यक्ष अथवा अनुमान का विषय नहीं है। पाणिनी के अनुसार कर्मफल में विश्वास करना ही आस्तिकता का लक्षण है –'अस्ति नास्ति दिष्टं मतिर्यस्य'। आस्तिकता कहें अथवा आध्यात्मिकता, एक ही बात है। कर्मफल प्रत्यक्ष अथवा अनुमान द्वारा जाना जा सकता है तो अलग से आगम प्रमाण की आवश्यकता नहीं है।
प्रमाण के संबंध में दो प्रकार के मत हैं-प्रमाणविप्लव और प्रमाणव्यवस्था। प्रमाणविप्लव के अनुसार एक ही प्रमेय को एक से अधिक प्रमाणों द्वारा जाना जा सकता है। प्रमाण व्यवस्था के अनुसार प्रत्येक प्रमेय के लिए एक प्रमाण विशेष निर्धारित है। इस प्रमाण व्यवस्था के मत का अनुसरण करते हुए मनु ने कहा है कि जिसे प्रत्यक्ष या अनुमान द्वारा न जाना जा सके उसे वेद द्वारा जाना जाता है। यही वेद की वेदता है
प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यास्तूपायो न बुध्यते। तद् विदन्ति वेदेन तस्माद् वेदस्य वेदता॥
अभिप्राय यह है कि आगम में वह ज्ञान है जो अतीन्द्रिय है। इस अतीन्द्रिय ज्ञान के प्रमाण के आधार पर ही अध्यात्म टिका है।
. इसके विपरीत सामाजिक नियमों के निर्माण में किसी अतीन्द्रिय ज्ञान का सहारा लेने की आवश्यकता नहीं रहती। समाज के सभी विषय प्रत्यक्ष अथवा अनुमानगम्य है। क्योंकि उनका संबध परलोक से नहीं है, इहलोक से है। उन नियमों के निर्माण में तर्कशक्ति का प्रयोग अवश्य किया जाता है किन्तु आगम का सहारा लेने की आवश्यकता नहीं है।
अध्यात्म और सामाजिकता में परस्पर व्यामोह इसलिए हो जाता है कि अध्यात्म और सामाजिकता के अनेक नियम समान है। उदाहरणतः मनुष्य की हत्या करना सामाजिकता की दृष्टि से भी अपराध है और अध्यात्म की दृष्टि से भी पाप है। किन्तु पशु का मांस खाना अध्यात्म की दृष्टि से पाप हो सकता है किन्तु कानून की दृष्टि में दण्डनीय अपराध नहीं है।
2. लौकिक नियमों में निरन्तर परिवर्तन होते रहे हैं। एक समय राजतन्त्र मान्य था, आज प्रजातन्त्र मान्य हो गया है। एक समय स्त्रियों के लिए पर्दा आवश्यक था, आज पर्दा आवश्यक नहीं है। पूंजीवादी व्यवस्था में व्यक्ति कितना भी धन रख सकता है, साम्यवादी व्यवस्था में व्यक्ति एक सीमा से अधिक धन नहीं रख सकता। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2000 SINITIATIVINITITINITIWANT 37
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