________________
तुलसी प्रज्ञा अंक 108
अध्यात्म
सामाजिकता 1. अध्यात्म से जुड़े पाप-पुण्य आदि विषय परोक्ष 1. सामाजिक हित-अहित प्रत्यक्ष तथा
है। अत: इनका स्रोत वे आगम हैं जिनमें अनुमानगम्य है। इस संबंध में प्रमाण वे अतीन्द्रिय ज्ञान सम्पन्न पुरुषों की वाणी संविधान या नियम-उपनियम हैं जिनका संकलित है।
निर्माण सामाजिक पुरुषों ने परस्पर विचार
विनिमय द्वारा किया है। 2. अध्यात्म के नियम त्रैकालिक है। वे सार्वभौम 2. सामाजिक नियम मनुष्यकृत व्यवस्था से जुड़े
हैं । देश, काल, परिस्थिति के अनुसार बदलते हैं। वे देश, काल, परिस्थिति के अनुसार बदलते नहीं हैं।
रहते हैं। 3. अध्यात्म-सम्बन्धी नियमों की अनुपालना 3. सामाजिकता के क्षेत्र में अधिकांश नियम कानून
स्वैच्छिक है। जैसे-जैसे व्यक्ति की अन्तर्प्रज्ञा से जुड़े होते हैं। व्यक्ति चाहे या न चाहे, उसे जागती है वैसे-वैसे वह स्वेच्छा से उन नियमों उन नियमों का पालन करना ही पड़ता है। को अधिकाधिक ग्रहण करता है। न करने पर यदि वह उन नियमों का उल्लंघन करे तो व्यक्ति प्रकृति द्वारा दण्डित अवश्य होता है कानून उसे दण्डित करता है। किन्तु मनुष्य उन नियमों का पालन कराने के लिए यदि दण्ड बल का प्रयोग करे तो यह
अनुचित है। 4. अध्यात्म के नियम मूलत: व्यष्टिपरक हैं। उनमें 4. सामाजिक नियम मूलतः समष्टिपरक है। उनका
स्व का हित-अहित निहित रहता है। उद्देश्य ऐसी व्यवस्था को बनाये रखना है जिससे आनुषंगिक रूप में उन नियमों के पालन से सबको लाभ पहुंचे। आनुषंगिक रूप में उस समाज का भी लाभ हो सकता है।
व्यवस्था का लाभ व्यक्ति को भी मिलता है। 5. अध्यात्म आत्मा को केन्द्र में रखता है। आत्मा 5. समाज मनुष्यों के समूह का नाम है। अत:
सबमें समान है, इसलिए अध्यात्म के नियम सामाजिक नियम मनुष्यों को केन्द्र में रखकर स्थावर तथा त्रस सभी को समान मानकर बनाये बनाये जाते हैं। शेष सभी प्राणियों को मनुष्य जाते हैं।
के हित-साधक साधन के रूप में ही महत्व
प्राप्त होता है। 6. अध्यात्म का लक्ष्य आत्मा की पवित्रता अथवा 6. सामाजिकता का लक्ष्य जीवन में सुख-सुविधा वीतरागता की सिद्धि है। यह निःश्रेयस है। जुटाना है। यह दृष्टि मूलत: रागपरक है। यह
प्रेयस् कहलाती है। 7. अध्यात्म के क्षेत्र में यदि कोई विवशता अथवा 7. सामाजिकता के क्षेत्र में व्यवस्था बनाये रखने निर्बलता के कारण किसी नियम का उल्लंघन के लिए अनेक ऐसे कार्य भी करने पड़ते हैं करें तो उसे प्रशंसनीय नहीं माना जा सकता। जो अध्यात्म की दृष्टि से उचित नहीं होते।
किन्तु समाज की दृष्टि से उन्हें निन्दनीय नहीं
माना जाता। NITITITIV तुलसी प्रज्ञा अंक 108
36
III
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org