SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तुलसी प्रज्ञा अंक 108 रागात्मकता है। वीतरागता का अर्थ है न जीवन की आकांक्षा, न मृत्यु की आकांक्षा-'नो जीवियं नो मरणाभिकंखी।' रागात्मकता का आधार है जिजीविषा, जीने की इच्छा। दोनों में मौलिक भेद है। जीवन और मरण दोनों इच्छाओं से ऊपर उठना ज्ञान का फल है। जहां जीवन है वहां मरण अवश्यम्भावी है। यह ज्ञान हमें जीवन और मरण दोनों की इच्छाओं से मुक्त करता है। जीवन में सब भोग सम्भव है। जीवन है तो भोग है। हमें भोग प्रिय है, इसलिए जीवन भी प्रिय है। मृत्यु के बाद भोग मिलेंगे या नहीं अथवा मृत्यु के बाद भोग भोगने वाला भी रहेगा या नहीं-यह संदिग्ध है। इसलिए हम मत्यु से डरते हैं । निष्कर्ष यह है कि जीवन की इच्छा मूलतः भोगों की इच्छा पर टिकी है। इसलिए वह धर्म नहीं है। वह मोह का परिणाम है। भ्रम तब उत्पन्न होता है जब हम रागात्मकता के आधार पर निर्मित सामाजिक कर्त्तव्य-मीमांसा और वीतरागता के आधार पर खड़ी हुई पाप-पुण्य मीमांसा को विभक्त नहीं कर पाते। अनेक विषय ऐसे भी हैं जो सामाजिक दृष्टि से भी त्याज्य है और अध्यात्म की दृष्टि से भी त्याज्य हैं । उदाहरणतः चोरी करना दोनों दृष्टियों से त्याज्य है। करणीय विषय भी कुछ ऐसे हैं जो दोनों दृष्टियों से हितकर है। उदाहरणतः मिताहार दोनों दृष्टियों से करणीय है। जहां सामाजिक और आध्यात्मिक दोनों दृष्टियाँ एक ही प्रकार का निर्णय लेती हैं वहां कोई कठिनाई नहीं होती। कठिनाई तब होती है जब कोई कर्म सामाजिक दृष्टि से करणीय होता है किन्तु अध्यात्म की दृष्टि से वह निर्दोष नहीं होता। आचार्य भिक्षु की दृष्टि यह है कि ऐसी परिस्थिति में सामाजिक जीवन जीने वाले अपनी-अपनी भूमिका के अनुसार अपने कर्तव्य का पालन करेंगे। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं होता कि आध्यात्मिक दृष्टि से भी उन कामों को निर्दोष मान लिया जाय। उदाहरणतः एक सैनिक अपने देश को शत्रुओं के आक्रमण से बचाने के लिए शत्रु पर प्रहार करेगा। यह उसका लौकिक धर्म है उसे सैनिक की दृष्टि से निभाना है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि सैनिक के द्वारा शत्रु का मारा जाना अहिंसा मान लिया जाये। लौकिक कर्त्तव्य और अध्यात्म के बीच विरोध का कारण रागात्मकता और वीतरागता है। रागात्मकता को वीतरागता नहीं कहा जा सकता। यहां एक बात की ओर ध्यान देना आवश्यक है कि यद्यपि अध्यात्म की दृष्टि से लौकिक कर्तव्यों में उचित, अनुचित का विवेक करना ठीक नहीं है तथापि लौकिक कर्तव्यों में उचित, अनुचित के विवेक करने का अपना मानदण्ड है। उदाहरणत: कोई सैनिक युद्ध करते हुए भी आत्मरक्षा में ही शस्त्र प्रयोग करे, यह उचित है किन्तु निरपराध पर शस्त्र प्रहार करना अनुचित है। अभिप्राय यह है कि TITITIV तुलसी प्रज्ञा अंक 108 32 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524602
Book TitleTulsi Prajna 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy