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________________ धर्म और समाज धर्म और कर्त्तव्य : आचार्य भिक्षु की दृष्टि में व प्रो. दयानन्द भार्गव धर्म के अनेक विषय प्रत्यक्ष अथवा अनुमान द्वारा जाने जा सकते हैं। किन्तु धर्म के कुछ ऐसे पक्ष भी हैं जिन्हें केवल आगम द्वारा ही जाना जा सकता है। पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक आदि को हम प्रत्यक्ष अथवा अनुमान द्वारा नहीं जान सकते। ये केवल आगमगम्य हैं। आचार्य भिक्षु का पाप-पुण्य सम्बन्धी विवेचन जैन आगमों पर आधृत है। सामाजिक जीवन का आधार प्रत्यक्ष अथवा अनुमान है। अध्यात्म के परोक्ष विषयों का आधार आगम प्रमाण है। अपराध और पाप में अन्तर करना होगा। अपराध कानून की दृष्टि में दण्डनीय है। कानून बदलता है तो अपराध की अवधारणा भी बदल जाती है। एक समय सती होना अपराध नहीं था। आज वह दण्डनीय अपराध है। किसी समय भिक्षा मांगना भी अपराध नहीं था किन्तु आज कानून की दृष्टि में भिक्षा मांगना एक अपराध है। पाप की अवधारणा इस प्रकार बदलती नहीं है। जो 2500 वर्ष पूर्व पाप था वह आज भी पाप है। किसी प्राणी को किसी भी प्रकार की पीड़ा देना पहले भी पाप था, आज भी पाप है और भविष्य में भी पाप रहेगा। कानून बदलकर इस सिद्धान्त को बदला नहीं जा सकता। उपर्युक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि पाप और अपराध दो भिन्न अवधारणा है। इसी प्रकार पुण्य और सामाजिक कर्त्तव्य भी दो भिन्न अवधारणाएं हैं। पाप और पुण्य का मूल आधार वीतरागता है। सामाजिक कर्त्तव्य, अकर्त्तव्य का मूल आधार तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2000 NITI TITITITI TIV 31 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524602
Book TitleTulsi Prajna 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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