SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भू-भ्रमण भ्रान्ति और समाधान ऊपर आकाशी पदार्थों को पृथ्वी के साथ ही घुमाता है, इस कारण पदार्थ पृथ्वी के साथ ही घूमते रहते हैं। यह कथन वायुमण्डल का हेतु पक्ष का साधन करने वाला नहीं है, क्योंकि जिस वायुमण्डल को हेतु बताया उसका स्वभाव बल तथा चाल कोई नियत रूप नहीं है। पृथ्वी के ऊपर वायु का स्वभाव है कि वह आकाश में सर्वत्र सूक्ष्म रूप से बहती है और जब किसी दूसरे पदार्थ का सम्बन्ध पाती है तब बादर (स्थूल) रूप को होकर बहने लगती है और मनुष्यादि के दौड़ने से या दौड़ने वाली गाड़ी में बैठने वाले के सम्मुख से टकराने लगती है। यह सर्वजन प्रसिद्ध है। ऐसे स्वभाव वाली वायु घूमती हुई या दौड़ती हुई एक मिनिट में 1110 मील पर तिष्ठते आदमी को नहीं टकराती है। इसलिए वायु का स्वभाव देखने से पृथ्वी के साथ पदार्थों का घूमना वायुमण्डल असत् संकल्प है और बल का भी नियतपना असम्भव नहीं है, क्योंकि तोप का गोला जो बड़ा भारी बड़े बल से चलता हुआ जो 15 मील पर जाकर निशान तोड़ेगा, ऐसे बलशाली गोले को तो वायुमण्डल पृथ्वी के साथ पूर्व को घुमा ले जाता है। यदि न ले जाये तो निशाने को कैसे तौड़े और आक का फफूंद जो किंचित वायु के बल से उड़ जाय। पश्चिम जाते हुए ऐसे फंफूदे को वायुमण्डल पूर्व दिशा में ले जाने को एक अंगुल मात्र भी समर्थ नहीं है। वायुमण्डल की चाल पदार्थों को पूर्व की ओर ले जाने के कारण पूर्व को मानी है। यदि उसकी वायु पूर्व को जाती है और पृथ्वी से ऊपर तक के पदार्थों को साथ ले जाती है तो पूर्व को जाने वाली रेल का धुंआ पश्चिम को और पश्चिम को जाने वाली रेल का धुंआ पूर्व को तथा उत्तर की ओर जाने वाली का दक्षिण और दक्षिण का उत्तर को क्यों जाता है? वायुमण्डल के बल से पूर्व को क्यों नहीं गया? इससे लगता है कि वायुमण्डल के बल का भी नियतपना नहीं है। इससे यह निराधार होता है कि वायुमण्डल वायुरूप है किन्तु वह पूर्व को नहीं जाता और न उसके साथ पदार्थ जाते हैं। वह वायु जो आकाश स्थित सूक्ष्म रूप होती है, पदार्थों के सम्बन्ध से जहाँ जैसा संयोग मिलता है वैसे ही सम्बन्ध से उधर को चलने लगती है। वायुमण्डल के पूर्व जाने की कल्पना असत्य है। वायुमण्डल का ४५ मील ऊँचे तक का कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि ४५ मील तक की वायु पूर्व को जाती है। इससे 45 मील ऊँचे पर वायु का संचार है, नहीं तो उल्का जाति के तारे जो पृथ्वी से बहुत ऊंचाई पर हैं, वह टूटते हुए एक प्रकाश रूप कतार को लिए हुए भूमि पर पड़ते हैं और सर्व दिशाओं को जाते दिखाई देते हैं। परन्तु सर्व भू के पूर्व की ओर घूमने से पश्चिम को जाते हुए दिखने चाहिए सो दृष्टि नहीं पड़ते। इससे मालूम होता है कि वायु का संचार जैसा वहां है वैसा ही आकाश खण्ड में है, अस्तु जैसा वायु का संचार उनको मिलता है उधर को जाते हुए दृष्टि पड़ते हैं। इस कारण वायुमण्डल का ४५ मील ऊँचे तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2000 INITI ATIVI TIVINITITINY 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524602
Book TitleTulsi Prajna 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy