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तुलसी प्रज्ञा अंक 108 कि पानी गोलाकार पर ही समस्थल रह सकता है, क्योंकि केन्द्र के सब ओर समान लम्बी रेखाओं से विनिर्मित है, उसमें ऊंचा-नीचापन नहीं है, अस्तु गोल पर ही पानी समस्थल रहता है। फिर प्रश्न उठता है कि यदि गोलाकार पर पानी समस्थल रहता है, ऊँचा-नीचा नहीं रहता है तो पानी में किसी जगह गड्डे नहीं होने चाहिए। इस पर उनका कहना है कि पृथ्वी तो गोल ही है और पानी भी गोलाकार ही ठहरता है परन्तु पृथ्वी जो घूमती है, इस कारण घूमने से दोनों ओर गड्डे पड़ने से चपटी हो गई है। उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि जैसे एक पानी भरा लोटा घुमाया जाय तो घूमती बार उसके पानी में गड्डा पड़ जाता है। इसी प्रकार पृथ्वी में भी गड्डा पड़ गया है। प्रस्तुत उदाहरण उपयुक्त नहीं ठहरता, क्योंकि लोटा की घूम तो ऊर्ध्व-अधो है। पृथ्वी की घूम इस प्रकार नहीं मानी गयी है। यदि ऊर्ध्व अधो ही मान ली जाय तो ऊर्ध्व-अधो के समुद्रों में गड्डे पड़ने चाहिए, सो ऐसा नहीं है, और यदि बिना पानी के ही गड्डा माना जाय तो यह भी असम्भव है, क्योंकि पत्थर या मिट्टी या काष्ठ का गोला जो पृथ्वी रूप हो, कैसा ही घमूता क्यों न हो, उसमें गड्डा पड़ सकता, यह प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। इसका कारण यह मानना कि पृथ्वी नारंगी की भाँति गोल घमूती है, मिथ्या भ्रान्ति रूप है।
यदि यह मान लिया जाय कि पृथ्वी गोलाकार में घूमती है तो कुरुक्षेत्र की भूमि जो एक गोलाकार के मध्य स्थान में है, वहां से गंगा पूर्वगामिनी होकर कलकत्ते के समुद्र से नौ सौ मील चलकर न मिलती इसी प्रकार पच्छिमगामिनी सिन्धु गंगा के विरुद्धगामिनी नौ सौ मील जाकर कराँची के समुद्र में न मिलती। यह तो पृथ्वी के घूमने पर प्रत्यक्ष दोष है, अस्तु, पृथ्वी न गोल है, न घूमती है, वह तो समस्थल और स्थिर है किन्तु विद्वानों ने इस पर तर्क दिया कि पृथ्वी गोलाकार साफ खराद की सी उतरी हुई नहीं है। उसमें कहीं पहाड़ व जमीन के ऊँचे टीले और कहीं समुद्र व झील नीचे हैं। इसका कारण कुरुक्षेत्र की भूमी कलकत्ते
और कराँची के समुद्र से करीब नौ सौ फीट ऊंची है। वहां से गंगा को पूर्व की ओर का रास्ता नीचला ढ़ाल का मिला और सिन्धु को पच्छिम की ओर नीचा मिला, इसका कारण जहाँ समुद्र मिला वहां ये नदियां मिल गईं। इस पर आगमकार कहते हैं कि यदि पृथ्वी गोलाकार घूमती है तो जिधर ढाल होता है, उधर ऊँचा और जिधर ऊँचा होता है उधर नीचा हो जाता है। अस्तु, यह हेतु प्रत्यक्ष असत्यार्थ भ्रान्ति रूप है। फिर विद्वानों का यह कहना है कि पृथ्वी नारंगी की भाँति गोल पूर्व दिशा को घूमती हुई है, तो यह कथन भी भ्रान्तिपूर्ण है, क्योंकि यदि पृथ्वी गोल पूर्व दिशा को घूमती हुई होती तो सदा पूर्वी हवाएँ चलती, ध्वजाएँ पश्चिम को उड़ती, पक्षी कभी अपने घौंसले पर न आते तथा तीर आदि सभी पश्चिम दिशा को जाते। इस पर भ्रमणवादी कहते हैं कि पृथ्वी के ऊपर ४५ मील ऊँचे तक वायुमण्डल है, वह पृथ्वी के 26 AMITINYAMITITITITI TIONI TORINIV तुलसी प्रज्ञा अंक 108
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