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________________ तुलसी प्रज्ञा अंक 108 प्रस्तुत निबन्ध में दो पक्ष स्थिर किए गए हैं-पहले पक्ष का कथन है कि पृथ्वी स्थिर है, अचल है जबकि सूर्य को स्थिर और पृथ्वी को परिभ्रमण करते हुए मानता है। पहला पक्ष जैन आगम अर्थात् जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, सूर्य प्रज्ञप्ति, त्रैलोक्य प्रगुप्ति, तत्वार्थश्लोकवार्तिक तथा भगवतीवृत्ति शतक आदि द्वारा विवेचित है। जिसकी पुष्टि वेद, कुरान-शरीफ तथा बाईबिल आदि जैनेतर आर्षग्रन्थों द्वारा भी की गई है। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति' नामक ग्रन्थराज में पृथ्वी को स्थिर बताकर उसे रचना धरयित्री बताया गया है। इसके साथ ही उसे अचल, अचला, स्थिरा, निश्चला आदि पर्यायों में गिनाया है। सूर्य-प्रज्ञप्ति नामक ग्रन्थ में स्पष्ट वर्णन है कि सूर्य एक सौ तिरासी प्रकार की चालों से घूमता है जिससे दिन-रात का होना और दक्षिणायन उत्तरायन के होने से दिन-रात का घटना-बढ़ना, समय, वस्तु आदि परिवर्तन होना होता है। भगवतीवृत्ति में सूर्य की गति को इस प्रकार बताया गया है कि जैसे-जैसे सूर्य आगे बढ़ता है, पिछले देशों में रात्रि होती जाती है और आगे वाले देशों में दिन। इस प्रकार देशभेद होता है। इसी प्रकार तत्त्वार्थश्लोकवार्तिककार भी पृथ्वी के भ्रमण की अपेक्षा उसकी स्थिरता पर ही बल देता है । आगम की पुष्टि करते हुए ऋगवेद यजुर्वेद अथर्ववेद में स्पष्ट घोषणा है कि पृथ्वी दृढ़ है, स्थिर है और सूर्य चलायमान अर्थात् परिभ्रमणकारी सायणभाष्य', पातञ्जलि महाभाष्य', शतपथ ब्राह्मण तथा योग दर्शन में पृथ्वी को सर्वतोभाव से स्थिर तथा सूर्य को गतिशील बताया गया है। इसी प्रकार कुरान-शरीफ में पृथ्वी को स्थिर, समस्थल, निरूपित किया है। बाईबिल में पृथ्वी को स्थिर और सूर्य को चलता हुआ बताया गया है। इनके अतिरिक्त वैशेषिक, नैयायिक, सांख्य, पौराणिक अर्थात् अठाहर पुराणों को मानने वालों का कथन भी यही है कि पृथ्वी स्थिर है और ज्योतिषचक्र चलता है। भारतीय मनीषा सम्पूर्णानन्दजी की मान्यतानुसार सूर्यचक्र परिवार सहित उल्टा लायरा की ओर एक सैकिन्ड में ग्यारह मील चलता है।14 पृथ्वी के सन्दर्भ में प्राचीन एवं नवीन पाश्चात्य मान्यताओं की समीक्षा करते हुए मुनि नगराज जी की तर्कणा भी पृथ्वी की स्थिरता का संकेत करती है। प्रसिद्ध गणितज्ञ श्रीपति मिश्र भी अपने ग्रन्थ 'सिद्धान्त शिरोमणि' में पृथ्वी की स्थिरता को मानते हुए अपने विचार इस प्रकार व्यक्त करते हैं, 'यदि पृथ्वी तीव्र वेग से घूमती होती तो उस पृथ्वी पर इतनी प्रचण्ड वायु चलती कि जिससे प्रासाद पर्वत की चौटियां आदि कुछ भी पदार्थ नहीं ठहर सकते और समस्त ध्वजाएँ सदा के लिए पश्चिमगामिनी होती। आचार्यवरा मिहिर" लल्लाचार्य आदि प्रसिद्ध गणिताचार्य भी पृथ्वी को स्थिर तथा सूर्य को परिभ्रमणकारी मानते हैं। इसके अतिरिक्त पहले के पश्चिमी विद्वान् अरस्तु आदि भी ईसामसीह के जन्म से चौदह सौ वर्ष तक पृथ्वी को स्थिर मानते थे। इस प्रकार इस पक्ष के पक्षधर एक स्वर से यही 24 ANITATIONINTIMITTINITIONITORINITV तुलसी प्रज्ञा अंक 108 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524602
Book TitleTulsi Prajna 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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