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जगत और सृष्टि की व्याख्या
संसार अनादि कैसे है। अति सूक्ष्म गणित है पुद्गल परिवर्त का । पुदगल परिवर्त के सात प्रकार और उनमें कहां जीव परिभ्रमण करता है, कितने समय तक करता है, सारा गणित के आधार पर जानें तो अनादि क्या होता है, उसकी एक झलक हमें मिल सकती है। उसका ज्ञान भी हो सकता है। गणित अनिवार्य है। शायद जैन दर्शन को सांख्य दर्शन कहें तो आपत्ति नहीं लगती ।
जैन दर्शन संख्या प्रधान है। हर बात गणित के साथ चलती है। दो जीव राशियांजीव राशि, अजीव राशि। पांच जातियां- एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय । हर बात गणित के साथ चलती है। इसलिए गणित की अनिवार्यता है । आज मैं महसूस करता हूं कि जैनों में गणित के जानकार बहुत कम हो गये। आज हमारे साधु-साध्वियां भी गणित जानकार बहुत कम हैं । इसीलिए जैन आगम के बहुत सारे रहस्यों को, कर्मवाद के रहस्यों को पकड़ने में बहुत कठिनाई हो रही है और शायद गणित का विकास इतना हुआ आज वैज्ञानिकों की तरह जैन विद्वान् भी कुछ नये आविष्कार करते और नई-नई उपलब्धियां दुनियां के सामने प्रस्तुत करते । गणित के अभाव में ही शायद अवरोध आ रहा है।
चौथा है धर्मकथानुयोग। इसमें न तो दर्शन की जटिलता है, न आचार शास्त्र की कठिनता है और न गणित की सूक्ष्मता है किन्तु जन साधारण को धर्म समझाने के लिए, अध्यात्म समझाने के लिए सरसता के साथ ऐसी बातें कथा में कही जाती कि बिना पीये ही प्यास बुझ जाती है। पानी गले के नीचे उतर जाता है। बिना खाये ही भूख बुझ जाती है, रोटी सीधी चली जाती है। यह भी बहुत आवश्यक है कि कथा के माध्यम से रूढ़ तत्वों को सरल बनाकर जनता के सामने रख देना । सब लोग तत्वज्ञानी भी नहीं होते, सब लोग आचार कुशल भी नहीं होते, सब लोग गणितज्ञ भी नहीं होते। उन सब लोगों के लिए सरसता के साथ उन सारी चीजों को उनके हृदय में प्रविष्ट करा देना यह धर्मकथानुयोग का काम है।
सत्य को देखने के लिए एक विशेष दृष्टिकोण की अपेक्षा है । हम देखते हैं, सारी दुनियां में कुछ आ रहा है, कुछ जा रहा है। कुछ उत्पन्न हो रहा है, कुछ नष्ट हो रहा है । यह दर्शन हमें अशाश्वत का बोध कराता है, अनित्यता का बोध कराता है । क्या सत्य इतना ही है ? यदि सत्य की यह सीमा है तो बहुत सारे आचार, व्यवहार और सिद्धान्त बदल जायेंगे । क्या इस परिवर्तन के पीछे कोई अपरिवर्तनीय भी है? एक जिज्ञासा स्वाभाविक होगी । अन्तः र्दृष्टि से या अतिशय ज्ञान, अतीन्द्रिय ज्ञान से देखने पर पता चला कि इस अशाश्वत के परदे के पीछे एक कोई शाश्वत भी है । उत्पाद और व्यय के प्रवाह के पीछे एक ध्रुव भी है। देखने की दृष्टि व्यापक बन गयी कि जो आँखों से दिखाई दे रहा है या जो हमारे तर्क से हमें प्रतीत
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2000
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