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तुलसी प्रज्ञा अंक 108 हो रहा है, इतना ही नहीं है। इस चक्षु दर्शन से अतीत भी है और तर्कातीत भी है। आगे प्रकाश बहुत खुला हो गया। व्यापक गति बन गयी कि तर्कातीत भी है। अस्तित्व है वह इन आँखों से दिखाई नहीं देता। अमूर्त इन आँखों से दिखाई नहीं देता। हमारे दर्शन की एक सीमा है कि हम मूर्त को देख सकते हैं और मूर्त में भी स्थूल मूर्त को देख सकते हैं । सूक्ष्म मूर्त को भी नहीं देख सकते। हम तर्क के द्वारा अमूर्त को नहीं जान सकते। आज तक आत्मा, परमात्मा, ईश्वर को तर्क के द्वारा सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है। बहुत भारी प्रयत्न किया गया। मेरी दृष्टि में उस प्रयत्न की सार्थकता उतनी ही है जितनी एक नींद में आदमी अच्छा सपना लेता है और जागने के बाद कुछ दिखाई नहीं देता। ज्यादा कोई सार्थकता नहीं लगती। न तर्क के द्वारा आत्मा को सिद्ध किया जा सकता और न तर्क के द्वारा परमात्मा या ईश्वर को सिद्ध किया जा सकता। तर्क का विषय नहीं है। आचार्य सिद्धसेन ने बहुत अच्छी बात कही थी कि सब कुछ हेतु गम्य नहीं है। यह हमारा आग्रह मिथ्या है कि हम तर्क से सिद्ध करें, हेतु से सिद्ध करें। जो हेतुवाद का विषय है वही हेतु से सिद्ध हो सकता है। अहेतुवादी पदार्थ, जो अमूर्त पदार्थ और सूक्ष्म पदार्थ हैं, तर्क के द्वारा कभी सिद्ध नहीं हो सकते। तर्क भी सीमा के साथ जुड़ा हुआ है। पदार्थ की प्रकृति को हम देखें तो अमूर्त पदार्थ हमारे ज्ञान के विषय नहीं है। हम केवल विशिष्ट ज्ञानी, अतिशय ज्ञानी की वाणी के आधार पर उनको स्वीकार कर लेते हैं और मानकर चलते हैं। वहां पहुंचने के लिए स्वयं को ही साधना करनी होगी। अपनी साधना सिद्ध होगी तभी कोई आदमी पहुंच पायेगा और उसका साक्षात्कार कर पायेगा। अस्तित्व अस्तिकाय का ही वाचक है। महावीर ने कहा कि पाँच अस्तिकाय हैं। प्रत्येक का स्वतन्त्र अस्तित्व है। जीव का स्वतन्त्र अस्तित्व है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय सबका स्वतन्त्र अस्तित्व है। अब जो अस्तित्व है वह सत् है और सत् में यह सारा होता है। उमास्वाति ने बहुत सुन्दर कहा-उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तम् सत् । सत् का लक्षण है-उसमें ध्रुवता देखें। एक अंश ऐसा है जो स्थायी रहता है, कभी नहीं बदलता। एक अंश ऐसा है जो परिवर्तित होता रहता है, बदलता रहता है। बहुत ठीक कहा गया - अथिरे पलोट्टई थिरे न पलोट्टई
. अस्थिर अंश है वह परिवर्तित होता रहता है। जो स्थिर अंश है वह कभी नहीं बदलता। अस्तित्व भी गत्यात्मक हो गया। एक उसका अपरिवर्तनीय अंश और एक उसका परिवर्तनीय अंश। परिवर्तन और अपरिवर्तन दोनों के आधार पर फलित हुआ है नित्यानित्यावाद। हम परिवर्तन को देखते हैं, क्योंकि हमारा ज्ञान इतना नहीं है कि हम अपरिवर्तन को देख सकें। अतीन्द्रिय ज्ञान के बिना वह संभव ही नहीं है। इन्द्रिय ज्ञान के द्वारा हम उतना ही जान सकते हैं जिनका बोध इन्द्रियों से हुआ है, संवेदनों से हुआ है हम उसे भी जान लेते हैं, मन 18 ATMITITIIIIIIIIII IIIIIIIIIIIIIIIIIIIII तुलसी प्रज्ञा अंक 108
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