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तुलसी प्रज्ञा अंक 108 चाहिए। प्रश्न उठा कि निरावरण ज्ञान है तो वक्ता भी होना चाहिए। जब वक्ता का प्रश्न आया तो तर्क शास्त्र में मीमांसा की गयी कि ईश्वर वक्ता नहीं हो सकता, क्योंकि वक्ता शरीरधारी ही हो सकता है। जिसके पास अष्टस्थान हैं उच्चारण करने के, वही प्रवक्ता हो सकता है। दूसरा प्रवक्ता नहीं हो सकता। यह निष्कर्ष निकला कि आगम एक मनुष्य के द्वारा प्रतिपादित है, ईश्वरीय ज्ञान नहीं है। उस मनुष्य के द्वारा प्रतिपादित है जो केवली बन चुका है या अतिशय ज्ञानी बन चुका है।
आगम को चार भागों में विभक्त किया गया है। यह विभाजन शायद पहले नहीं था किन्तु इसे मैं बहुत अच्छा वर्गीकरण मानता हूं। द्रव्यानुयोग, चरणकरणानुयोग, गणितानुयोग, धर्मकथानुयोग। द्रव्यानुयोग, यह दार्शनिक पक्ष है आगम का। तत्व मीमांसा का प्रश्न है। जहां सारे तत्वों की मीमांसा होती है। विश्व के स्वरूप का निरूपण होता है और अस्तित्व की व्याख्या होती है। यह सारा द्रव्यानुयोग, गणित या जो तत्व मीमांसा का, वास्तविकता का प्रश्न है। दूसरा है चरणकरणानुयोग जो आचार शास्त्र का प्रतिपादन करता है। यह स्पष्ट स्वीकार करना चाहिए कि दर्शन और धर्म दोनों को एक मानें तो भूल होगी। अपेक्षा से एक कह दिया जाता होगा पर वास्तव में दिशाएं दो हैं । दर्शन शास्त्र का काम है विश्व की व्याख्या करना, विश्व के स्वरूप का प्रतिपादन करना और जो वास्तविक तत्व है उनका निरूपण करना। धर्म का काम है आचार का प्रतिपालन करना, अनुशीलन करना । इसीलिए दर्शन और धर्म जुड़े हुए होने पर भी स्वरूपतः भिन्न हो जाते हैं। एक हमारा क्रिया पक्ष है और एक हमारा ज्ञान पक्ष है। द्रव्यानुयोग दार्शनिक पक्ष है, वह ज्ञान पक्ष है जिससे हम सत्य को जानते हैं । आचार हमारा क्रिया पक्ष है, इसे जीवन में दर्शन का अवतरण कह सकते हैं। कोरा दर्शन नहीं, दर्शन के बाद जीवन में दर्शन का अवतरण होना चाहिए। वह हमारा धर्म बन जाता है। यह जो वर्गीकरण किया गया वह बहुत अच्छा है। द्रव्यानुयोग के बिना तो आचार आपका बनेगा ही नहीं। द्रव्यानुयोग के आधार पर जो ज्ञान हमने जाना, जो सच्चाई हमने जानी उसके आधार पर हमारे आधार का निर्धारण, स्थापन और अनुशीलन होगा। आचारानुयोग, चरणकरणानुयोग बहुत सुन्दर बन गया। अब तीसरा एक वर्ग बना गणितानुयोग, इसका सम्बन्ध दोनों से है।
वर्तमान में तर्कशास्त्र गणित के आधार पर चल रहा है। तर्कशास्त्र केवल भाषा के आधार पर नहीं चलता, गणित के आधार पर चलता है। सत्य की खोज में कोई आदमी जायेगा उसके लिए अनिवार्य है। सूक्ष्म सत्यों को पकड़ने के लिए गणित के बिना कुछ हो नहीं सकता। हम कहते हैं कि संसार अनादि है। अब अनादि है, इसका कोई अर्थ समझ में नहीं आता कि क्या अनादि है। पुद्गल परावर्तन का ज्ञान हो जाने से समझ में आयेगा कि
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ITINATILITV तुलसी प्रज्ञा अंक 108
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