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________________ तुलसी प्रज्ञा अंक 108 वर्चस्व है। क्या जैन समाज अपनी सांस्कृतिक धरोहर के प्रचार-प्रसार में सक्रिय नहीं हो सकता? हमारे पास भी जैन तीर्थंकरों के प्रेरक चरित्र हैं। जीवन का दर्शन है। सांस्कृतिक विचारों की समृद्ध परम्परा है। पूरे राष्ट्र तक पहुंचाने में क्या जैन समाज के समृद्ध श्रावक एवं बुद्धिजीवी वर्ग योजनाओं के साथ इस कड़ी में नहीं जुड़ सकते? हमें इस दिशा में प्रयत्न करना चाहिए। . जैन समाज लोकतंत्र से जुड़ा है। अतः इसकी शुद्धि पर ध्यान दें तो राजनीतिक भ्रष्टाचार खत्म हो सकता है। वोटों की खरीदपरस्ती थम सकती है। हम ऐसा माहौल तैयार करें कि आचार्य श्री तुलसी के शब्दों में उसी व्यक्ति को वोट दिया जाए जो 'ईमानदार हो, नशामुक्त हो, चरित्रवान हो, कार्य निपुण हो, जातिवाद और सम्प्रदाय से बंधा न हो।' जैन समाज पहल करे कि अपनों में से ऐसे लोगों को चुनकर सत्ता के गलियारों से संसद की कुर्सी तक पहुंचाएं जिनका चरित्र ऊंचा हो, प्रामाणिक हो । जिनके लिए कुर्सी से भी ज्यादा कर्तव्य का मूल्य हो और संसद में जैनों का प्रतिनिधित्व कर सके। आशा की जा सकती है कि लोकतंत्र की शुद्धि में जैनों की उपस्थिति अपनी प्रभावी भूमिका निभा सकती है। आज जरूरी है, अविश्वास, अनास्था और अस्थिरता के कटघरे से निकलकर हम सामने आएं नई चेतना, नई शक्ति और नई संभावनाओं के साथ। 0 जैन समाज संगठन, एकता, अनेकान्त, संयम, समन्वय और अध्यात्म का प्रतिनिधि संगठन है। राष्ट्रीय फलक पर जैनों की पहचान जहां भी कमजोर रही है वहां एक ही कारण है संगठन और विचार सामंजस्य का अभाव । एक धर्म की छत के नीचे सम्प्रदायों का वैविध्य हमें न एक मंच दे पाया, न एक बैनर तथा न एक नेतृत्व और न एक आचार संहिता। इसीलिए संवत्सरी जैसे महान् पर्व को हम एक दिन मनाने की सहमति नहीं बना सके। सरकारी अवकाश में इसे अहिंसा दिवस के रूप में दर्ज नहीं करा सके। अपने-अपने सम्प्रदायों को प्राथमिकता दी। एकसूत्रता की नीति में नहीं बंधने से आज युग मांग रहा है हम सबका मिलाजुला प्रयत्न। इक्कीसवीं सदी की अगवानी में यह उपलब्धि स्वर्णाक्षरों से लिखी जा सकती है। 0 जिस युग में वैश्विक स्तर पर मानवाधिकार की बात चल रही हो वहां इतना आतंक, हिंसा, संघर्ष, अपहरण, असुरक्षा की वारदातें! भ्रूण हत्या जैसे नृशंस कृत्य, मांस निर्यात का व्यापार, कत्लखानों को स्वीकृति, पशु पक्षियों की तस्करी, मासूम और निर्दोष पशु पक्षियों को क्रूरता और निर्ममता के साथ मारकर बनाई गई प्रसाधन सामग्री से रूप IIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII तुलसी प्रज्ञा अंक 108 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524602
Book TitleTulsi Prajna 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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