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________________ तुलसी प्रज्ञा अंक 108 तो हमारी जीवन-शैली, चिन्तन-शैली और कर्म-शैली राष्ट्र हितों में मार्गदर्शन दे सकती है। आज हम उन बिन्दुओं पर चिन्तन करें जो हमारे लिए करणीय हैं पर हम कर नहीं पा रहे हैं और जिनके न करने से हम स्वयं राष्ट्र के लिए प्रश्नचिह्न बन रहे हैं, और हमारे व्यक्तित्व, संगठन और संस्कृति की चेतना का विकास जिस कारण थमा पड़ा है। आइए, समाज- क्रांति और राष्ट्र - क्रांति से भी पहले हम वैयक्तिक- क्रांति की बात सोचें, क्योंकि आचार्यों ने हमें एक सूत्र दिया है - 'सुधरे व्यक्ति समाज व्यक्ति से, राष्ट्र स्वयं सुधरेगा । ' हमारे आस-पास जैसा परिवेश है, परिस्थिति है, संगठन है, विचार है, दर्शन है, हम इनके बीच राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान को तलाशें, उससे पहले हमें भी कुछ ऐसे कदम उठाने हैं जो हमारे जीवन-दर्शन को नई पहचान दे सकें । एक जमाना था जब जैनों की अपनी विशेष पहचान थी। राजा महाराजाओं के यहां महामंत्री और कोषाध्यक्ष के पदों पर जैन श्रावकों को नियुक्त किया जाता था, क्योंकि उनकी पवित्रता पर सबको विश्वास था । वास्तव में रंगीन मिज़ाजी राजाओं की संगत में रहकर भी शराब तक को न छूना, मांसाहार न करना, जुआ न खेलना सामान्य बात नहीं थी । जैन श्रावक को विरासत में जैनत्व के संस्कार प्राप्त थे । इसीलिए धर्म का मजीठी रंगक्षेत्र, काल और परिस्थिति मिटा न पाई । मगर आज दृष्टिकोण बदल गया। आज निजी स्वार्थ आगे, धर्म संस्कार पीछे हो गया, इसलिए सिद्धान्त, संस्कार और शिक्षा सभी कुछ प्रश्नों के घेरे में आ खड़े हुए। हमें जैन - सिद्धान्तों और जैन संस्कारों की प्रतिबद्धता में जीना है मगर उसमें पुराणपंथता और रूढ़ता देखकर नहीं। जैनत्व की पहचान को नई सोच के साथ जीएं। हम जैन हैं, यह हमारे लिए गौरव की बात है मगर बिना कर्मणा जैन बने हमारा आचरण, चिन्तन और कर्म राष्ट्र की पहचान कैसे बन सकता है? भगवान् महावीर ने कहा- ' - तुम जन्मना नहीं, कर्मणा जैन बनो ।' कर्मणा जैन कहलाने के लिए हमें आचार्य श्री तुलसी द्वारा निर्देशित कुछ अर्हताएं स्वीकार करनी होंगी • कर्मणा जैन का दृष्टिकोण सम्यक् होगा । उसकी कथनी और करनी में समानता होगी। उसके खान-पान की शुद्धता रहेगी। • वह व्यसन मुक्त होगा । ० अहिंसा, अनेकान्त, आत्मकर्तृत्व और आत्मस्वातंत्र्य में निष्ठा होगी। 4 Jain Education International For Private & Personal Use Only NITV तुलसी प्रज्ञा अंक 108 www.jainelibrary.org
SR No.524602
Book TitleTulsi Prajna 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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