SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ युक्त रात्रि में ही संसार के सारे गलत कार्य सम्पादित किए जाते हैं लेकिन महाप्रज्ञ की कमनीया कला - तूलिका का स्पर्श पाकर वह संसार में श्रेष्ठ परोपकारिणी के रूप में उपस्थित होती है । रात्रि के अधोविन्यस्त शब्द कितने मार्मिक हैं और अल्पज्ञान के अहंकार में फंसकर दूसरों पर दोषारोपण करने वाले लोगों के लिए कितना सुन्दर उपदेश देती हैं । रात्री राजा रत्नपाल से कहती है * अहमवैमि न चात्र ममादरः परमपेक्ष्य परोपकृति सदा । नियतकाल मुपैमि करोम्यपि महितलं सकलं तमसावृतम् ॥ + परमहो ! मनुजा अविवेकिनो नहि भवन्ति रहस्य विदः क्वचित् । अपचिकीर्षव एव तमो मम गृहमणेनिचयान्मनसो न च ॥ Jain Education International अर्थात् हे रात्रि ! क्या तुझे ज्ञात नहीं है कि तू इस जगत् को अंधकार से व्याप्त कर देती है । अंधेरे से मनुष्य भयभीत होते हैं और उससे कायरता बढ़ती है । किन्तु मनुष्य कितने अविवेकी होते हैं ? अंधकार को दीप जलाकर दूर करना चाहते हैं, मिटाना नहीं चाहते हैं । + वे रहस्य को नहीं जानते । वे मेरे किन्तु अपने मन के अन्धकार को ४. व्यक्तिगत सुन्दरता यह सत्य है कि विषय का सुन्दर होना आवश्यक है लेकिन इससे कहीं अधिक आवश्यक है - व्यक्तिगत सुन्दरता । सुप्रसिद्ध विचारक क्रोचे तो केवल द्रष्टा की चित्तदशा में ही सुन्दरता को स्वीकार करता है । संसार की जितनी भी वस्तुएं हैं, उनका सुन्दर होना या न होना प्रमाता की सुन्दरता पर निर्भर है । द्रष्टा जितना सुन्दर होगा, पवित्र होगा उतना ही अधिक सृष्टि को पवित्र देखेगा, सुन्दर देखेगा । संसार में अनेक अच्छे खाद्य-पदार्थ मिल सकते हैं, विद्यमान है लेकिन सुकर विष्टा को ही ग्रहण करता है । मन से प्रसन्न व्यक्ति को ही कमल या चांद सुन्दर लगता है। भूख से पीड़ित, उदास मन वाला व्यक्ति चांद या कमल में सुन्दरता क्या देखेगा । पुत्रशोक से पीड़ित मनुष्य पर्वतमालाओं को, सूर्योदय के समय प्राची क्षितिज को देखकर क्या प्रसन्न होगा ? द्रष्टा अपनी आकृति, स्वभावादि के अनुरूप ही जागतिकता का निर्धारण करता है । सुप्रसिद्ध सूफी प्रेमकथानक लैला-मजनूं में लेला शरीर की दृष्टि से काली थी, कुरूप थी लेकिन मजनूं की दृष्टि में वह विश्व की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी थी । शंकर महादेव कितने कुरूप ? बाघम्बर धारण किए हुए, सर्प लपेटे हुए, न गोत्र का पता न वंश का ठिकाना । लेकिन पार्वती की दृष्टि में शंकर सर्वाङ्गसुन्दर और अप्रतिम लावण्य से युक्त एवं अनुपमेय थे । कुमार संभव का यह प्रसंग कितना मार्मिक ૪૬૪ तुलसी प्रशा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524594
Book TitleTulsi Prajna 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy