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________________ युवक उसके शरीर सम्बन्ध की ओर दौड़ता है, क्योंकि वह उतना ही ग्रहण कर सकता है लेकिन महाशक्ति का साधक कोई शंकर उसी युवति में आद्याशक्ति के रूप का साक्षात्कार कर वह आत्मा का संगीत गाने लगता है, हाथ जोड़कर उस माता के चरणों में शब्द-पुष्प समर्पित कर अपनी ह्रस्वता का निवेदन करने लगता है मत्समः पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा न हि ।' जो व्यक्ति जितना ही सहृदय होगा उतना ही अधिक सृष्टि की सुन्दरता का आस्वादन कर पाएगा। महाकवि कालिदास की कला इस विद्या में अग्रणी है। राजप्रसाद के भग्नावशेष में भी सुन्दर रूपवती युवति का दर्शन कालिदास जैसे सिद्धसारस्वत से ही संभव है । अयोध्या की नगरदेवी कुश से अयोध्या की दुर्दशा का वर्णन करते हुए कहती है स्तम्भेषु योषित्प्रतियातनानामुत्क्रान्तवर्णक्रमधूसराणाम् । स्तनोतरीयाणि भवन्ति सङ्गा निमोकपट्टाफणिभिविमुक्ताः ॥ अर्थात् राजप्रासाद के खंभों में स्त्रियों की मूर्तियां बनी हुई थी आजकल उन मूर्तियों का रंग उड़ गया है। उन खंभों को चंदन का वृक्ष समझकर जो सांप उनसे लिपटे हैं उनकी केंचुले छूटकर मूर्तियों . से सट गयी हैं और वे ऐसी लगती हैं, मानो उन स्त्रियों ने स्तन ढकने के लिए कपड़ा डाल लिया हो, सांप की केंचुल से उत्पन्न चित्र रमणी का आंचल हो रही है, निर्मोक स्तनोत्तरीय हो रहा है। वाह रे सहृदयता । सर्प की सूखी भयावनी केंचुल कला में झीना अंचल बन जाती है, नीरस निर्मोक सरस स्तनोत्तरीय हो जाता है । जीवन के सुख-दुःख कला में चिर सुन्दर हो जाते हैं। आचार्य महाप्रज्ञ के संस्कृत काव्यग्रंथों में अनेकशः ऐसे प्रसंग है जहां पर महाप्रज्ञ के हृदय की विशालता, उनकी सहृदयता का दर्शन होता है। वृक्ष-जो संसार में जड़ के नाम से जाने जाते हैं लेकिन महाप्रज्ञ की कला का स्पर्श पाकर न केवल जीवन्त हो उठे बल्कि महापुरुषत्व की अन्तिम कसोटी-क्षमाशीलता के मूर्तिमन्त विग्रह भी बन गए । रत्नपालचरित में वर्णित राजारत्नपाल एवं वृक्ष संवाद में यह घटना द्रष्टव्य है । वृक्ष अपने राज्यपति से कहते हैं --- धिन्दति भिन्दन्ति जनास्तथापि पूत्कुर्महे नो तव सन्निधाने । क्षमातनूजा इति संप्रधार्य क्षमां वहामो न रुषं सृजामो॥ अर्थात् हे राजन् ! लोक हमारा छेदन भेदन करते हैं, फिर भी हम तुम्हारे पास पुकार नहीं करते । हम क्षमा (पृथ्वी) के पुत्र हैं, इसलिए क्षमा धारण करते हैं, कभी किसी पर रोष नहीं करते। रात्रि अपनी कालिमा, भयंकरता आदि के लिए प्रसिद्ध है। भयंकर अंधकार न २३, अंक ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524594
Book TitleTulsi Prajna 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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