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स्थापना हो जाती है । तप मंगलकारक है । तप के बिना रूप फलित नहीं होता है। विश्व सुन्दरी पार्वती को जब तक अपने रूप पर, शारीरिक लावण्य पर, पिता की भौतिक सम्पदा पर गर्व था, उसे कहां शिवत्व की प्राप्ति हुई ? जगज्जेता कामदेव भी सहायता करने के लिए उपस्थित हुआ, लेकिन वह सहायता क्या करता, देखते ही देखते भस्म का ढेर बन गया
क्रोधं प्रभो संहर संहरेति यावद्गिरः खे मरुतां चरन्ति । तावत् स वह्नि भवनेत्रजन्मा
भस्मावशेष मदनं चकार । यह सब घटना रूपवती-युवती पार्वती के सामने ही घटी। सारा मोह भंग हो गया, अहंकार छिन्न-भिन्न हो गया । वह रूप रूप क्या जो शिव के सान्निध्य रूप फल को प्राप्त नहीं करा सके-.
निनिन्द रूपं हृदयेन पार्वती
प्रियेषु सौभाग्य फला हि चारुता ।" बस क्या था, उस कोमलांगी कुमारी कन्या ने अपने रूप को सुन्दर करने के लिए ठान ली, कल तक जो भोगासक्त थी आज कठोर तपस्साधना के लिए तैयार हो गई क्योंकि तपस्या के बिना परम का साक्षात्कार असंभव है--
इयेष सा कर्तुमबन्ध्यरूपतां समाधिमास्थाय तपोभिरात्मनः । अवाप्यते वा कथमन्यथा द्वयं
तथाविधं प्रेम पतिश्च तादृशः ।। अर्थात् पार्वती ने एकाग्रचित्त से तपश्चर्या करके अपनी सुन्दरता को सफल करने की इच्छा की । तपस्या के बिना पति का वैसा उत्कृष्ट प्रेम और शिव जैसा पति यह दोनों कैसे मिल सकता है।।
सम्बोधि का मेघकुमार संसार की ओर आकर्षित होता है। एक रात के कष्ट ने उसके जीवन को हिला दिया । महावीर प्रतिबोधित करते हैं, तपश्चरण में पुननियोजित करते हैं क्योंकि इसके बिना मनुष्यत्व की सार्थकता सिद्ध ही नहीं हो सकती। मंगल की प्राप्ति कौन कहे उसका दर्शन भी दुर्लभ है। इसलिए स्पष्ट शब्दों में श्रेयस् जीवन के लिए तपश्चरण की आवश्यकता पर आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने बल दिया है। ३. सहृदयता
__ संसार अपने आप में न सुन्दर होता है न कुरूप । अपने हृदय के बनावट के अनुसार ही व्यक्ति संसार को ग्रहण करता है। सहृदय पवित्रात्मा संसार के प्रत्येक वस्तु को पवित्र और सुन्दर समझता है । सृष्टि के हर पदार्थ को सृष्टिकर्ता के महाप्रसाद स्वरूप स्वीकार कर कुरूपता में सुरूपता का साक्षात्कार करता है। एक सांग सुन्दरी नव-यौवन सम्पन्ना युवति को देखकर चितभ्रष्ट युवक, हृदयहीन कामुक
तुलसी प्रजा
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