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________________ भी है । आचार्य पूज्यपाद ने भी कहा है कि आत्मा के अमूर्तत्व के संबंध में अनेकांत है । आत्मा कथंचित मूर्तिक है और कथंचित अमूर्तिक ।२३ आत्मा की व्यापकता जैनदर्शन में आत्मा को कथंचित सर्वव्यापी माना गया है। आत्मा ज्ञान स्वरूप होने से ज्ञान प्रमाण है । ज्ञान ज्ञेय प्रमाण कहा गया है, ज्ञेय लोकालोक है। इसलिए ज्ञान सर्वगत है ।२४ आत्मा कथंचित ही सर्वगत है। वैसे तो आत्मा को देह परिणामी ही माना गया है । उपनिषदों में भी आत्मा को नख से शिख तक व्याप्त माना गया हैं । पंचास्तिकाय तात्पर्य वृत्ति में कहा गया है ___ 'सर्वत्र देहमध्ये जीवोऽस्ति न चैकदेशे । २५ आत्मा को देह प्रमाण मानने से तात्पर्य आत्मा को अपने संचित कर्म के अनुसार जितना छोटा-बड़ा शरीर मिलता है, उस पूरे शरीर में व्याप्त होकर वह रहता है । शरीर का कोई भी अंश नहीं, जहां जीव न हो। जीव में संकोच विस्तार करने की शक्ति होती है । प्रश्न यह है कि आत्माओं के संकोच-विस्तार का कारण क्या है ? पंचास्तिकाय में कहा गया है कि कार्मण शरीर के कारण संसारी आत्मा संकोचविस्तार शक्ति से देह प्रमाण है । आत्मा कर्ता, भोक्ता एवं प्रभु है ___ आचार्य कुन्दकुन्द ने जीव के कर्तृत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा है ।२६ कर्म संयुक्त होने की अपेक्षा जीव के प्रभुत्व गुण के विषय में कहा है कि अनादिकाल से कर्म संयुक्त जीव, भाव और द्रव्य कर्मों के उदय से शुभाशुभ कर्मों का कर्ता और भोक्ता होता हुआ शांत तथा अनन्त चतुर्गति रूप, संसार में मोह से आच्छादित होकर भ्रमण करता रहता है। जिनेन्द्रदेव द्वारा बतलाये मार्ग पर चलकर जीव समस्त कर्मों को उपशम और क्षीण करके विपरीत अभिप्राय को नष्ट कर प्रभुत्वशक्तियुक्त होता है और ज्ञान मार्ग में विचरण करता हुआ आत्मीय स्वरूप मोक्ष मार्ग को प्राप्त करता है ।।२७ आत्मा के इस विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि जीव ईश्वर की प्रेरणा से शुभ-अशुभ कर्म नहीं करता है ।२८ आत्मा को सर्वज्ञता जनदर्शन में सर्वज्ञता संबंधी विचार अत्यन्त प्राचीन हैं । ज्ञान स्वभाव आत्मा के निरावरण होने पर अनन्त ज्ञान या सर्वज्ञता स्वाभाविक रूप से प्रकट हो जाती है। कुन्दकुन्दाचार्य ने वीतरागी केवलज्ञानी को समस्त पदार्थों का युगपत द्रष्टा कहा है। उन्होंने नियमसार के शुद्धोपयोगाधिकार२६ में कहा है --'केवली भगवान समस्त पदार्थों को जानते और देखते हैं', यह कथन व्यवहारनय की अपेक्षा से है लेकिन निश्चय नय से वे अपने आत्म स्वरूप को जानते और देखते हैं।' ताकिक युग में समन्तभद्राचार्य, सिद्धसेन, अकलंकदेव, हरिभद्र, वीरसेन, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र और हेमचंद्रादि ने प्रबल युक्तियों से सर्वज्ञ की सत्ता को सिद्ध किया है। आरमा के भेद कुन्दकुन्दाचार्य ने सामान्य की अपेक्षा से आत्मा का एक भेद और विस्तार की तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524594
Book TitleTulsi Prajna 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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