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________________ आत्मा के स्वरूप को लेकर कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रंथों में निम्न निष्कर्ष देखे जाते १. चैतन्य आत्मा का स्वाभाविक धर्म है, आगन्तुक नहीं है । न्याय वैशेषिक दर्शन आत्मा को जड़ स्वरूप मानकर चैतन्य को उसका आगन्तुक लक्षण माना है किन्तु कुन्दकुन्द ने जैन चिंतन के अनुसार ही चैतन्य और आत्मा को भिन्नभिन्न न मानकर एक माना है । चैतन्य आत्मा उसी प्रकार चैतन्य स्वरूप है जिस प्रकार अग्नि उष्ण स्वभाव वाली है । द्रव्य और गुण भिन्न-भिन्न नहीं है । आत्मा भी एक द्रव्य है और चैतन्य उसका गुण होने के कारण चैतन्य आत्मा से पृथक् नहीं माना जाता । इसी कारण से ज्ञान और आत्मा में कोई भिन्नता नहीं २. आत्मा स्व पर प्रकाशी है । आत्मा ज्ञान स्वरूप है और ज्ञान स्व के साथ-साथ पर को भी प्रकाशित करता है । जैसे सूर्य या दीपक अपने आपको प्रकाशित करता है और अन्य पदार्थों को भी प्रकाशित करता है, उसी प्रकार आत्मा भी स्वयं तथा पर-पदार्थों को प्रदर्शित करता है । आचार्य कुन्दकुन्द प्रथम जैन आचार्य हैं जिन्होंने ज्ञान को सर्वप्रथम स्वपर प्रकाशक मानकर इस चर्चा का सूत्रपात किया ।" १६ ३. आत्मा चैतन्य के समवाय सम्बन्ध से चैतन्यवान नहीं है। जो स्वयं जड़ है । वह चैतन्य के संबंध से चैतन्यवान एवं ज्ञानी कैसे कहला सकता है ? यहां पर कुन्दकुन्दाचार्य प्रश्न करते हैं कि आत्मा ज्ञान नामक गुण से संबंध होने के पहले ज्ञानी था या अज्ञानी ? यदि आत्मा ज्ञान से संबंध के पहले ज्ञानी था एवं ज्ञान के समवाय संबंध से आत्मा के ज्ञानवान होने की कल्पना करना व्यर्थ ही है ।' यदि अचेतन आत्मा चेतन्य के समवाय संबंध से चैतन्यवान हो जाता है तो घटादि पदार्थ भी जड़ होने से आत्मा की तरह चैतन्यवान होने चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं होता है अतः जड़ आत्मा चेतना संबंध से चैतन्यवान नहीं होता । ४. जीव एक ब्रह्म का अंश नहीं है " जैसा अद्वैत वेदांत में माना गया है । कुन्दकुन्द वेदांत की इस मान्यता से सहमत नहीं हैं कि जिस प्रकार बहुत से जल के घड़ों में भिन्न-भिन्न रूप दिखाई देता है, वैसे से शरीरों में भिन्न-भिन्न रूप से दिखाई देता है । जैन दर्शन एकात्मवादी नहीं अपितु अनेकांतवादी है । एक ही चंद्रमा ५. आत्मा मूर्तिक और अमूर्तिक भी है । कुन्दकुन्द ने आत्मा का वर्गीकरण अमूर्तिक द्रव्यों में किया है ।" आत्मा को अमूर्तिक कहने का तात्पर्य है पुद्गल के गुण रूपादि से रहित होना । अतः शुद्ध आत्मा ही अमूर्तिक है पर केवल आत्मा को अमूर्ति मानने से वह आकाश की तरह कर्मबंध रहित हो जायेगा । चूंकि आत्मा कर्मबंध रहित नहीं है । कहा गया है - 'व्यवहारेण कर्मभिः सहैकत्वपरिणामान्मूर्तोऽपि निश्चयेन नीरुपस्वभावत्वान्नहि मूर्त: । २२ अतः सिद्ध है कि निश्चय नय की अपेक्षा आत्मा अमूर्तिक है और व्यवहारनय की दृष्टि से अनादि काल से दूध और पानी की तरह आत्मा और कर्म के मिले रहने के कारण आत्मा मूर्तिक २३, अंक ४ ४३९ Jain Education International For Private & Personal Use Only एक ही जीव बहुत वेदांत की तरह www.jainelibrary.org
SR No.524594
Book TitleTulsi Prajna 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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