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अपेक्षा से दस भेद किये हैं
'एको चेव महप्पा सो दुवि यप्पोत्ति लक्खणो होदि । चदु चंकमणो भणिदो पंचग्गगुणप्पथाणो य ।। छक्कापक्कमजुत्तो उवउत्तो सत्तभंग सम्भावो। अट्ठासओ णवत्थो जीवो दस ढाणगो भणिदो ।'
पंचास्तिकाय गा. ७१-७२ वह जीव महात्मा चैतन्य या उपयोग सामान्य की अपेक्षा एक प्रकार का है । ज्ञान, दर्शन या संसारी-मुक्त तथा भव्य-अभव्य या पाप-पुण्य की अपेक्षा से दो प्रकार का है । ज्ञान चेतना, कर्म चेतना, कर्म फल चेतना, उत्पाद-व्यय ध्रौव्य या द्रव्य-गुण-पर्याय की अपेक्षा से तीन प्रकार, चार गतियों (मनुष्य, देव, तिर्यञ्च, नारक) में भ्रमण करने की अपेक्षा या एकेन्द्रिय आदि की अपेक्षा से पांच प्रकार, छः दिशाओं में उपक्रमयुक्त होने के कारण छह प्रकार, और सप्तभंगी से सिद्ध होने के कारण सात प्रकार का है । आठ कर्म या सम्यक्त्वादि आठ गुणयुक्त होने के कारण आठ प्रकार का है । नौ पदाथों रूप परिणमन होने के कारण नौ प्रकार का है। पृथ्थी आदि पांच एकेन्द्रियादि पांच इन दस स्थानों को प्राप्त होने के कारण इस प्रकार का है । संदर्भ
१. मङ्गलं भगवान वीरो मङ्गलं गौतमो गणी । ___मङ्गलं कुन्दकुन्दार्य: जैन धर्मोऽस्तु मंगलम् ।। २. पुरोवाक् पृ.७ ३. तत्वार्य सूत्र १४ ४. प्रवचनसार २१३५ ५. समयसार, गा. १३ ६. समयसार : आत्मख्याति टीका कलश ७ ७. 'जीवो त्ति हवदि चेदा उवओगविसे सिदो' (पं. मू. १०९) ८. समयसार मू. ४९ ९. पंचास्तिकाय, गा. २७ १०. देवसेन : नयचक्र, गा. १८३ ११. समयसार, गा. ११ १२. " १४-१५ १३. " ५०, नियमसार ३१३८-४६ ६४. णिग्गंथो णीरागो णिस्सल्लो सयलदोसणिम्मुक्को। णिक्कामो णिक्कोहो णिम्माणो णिम्मको अप्पा ।।
नियमसार ३१४४ १५. समयसार, ५६-५७ १६.पंचास्तिकाय, २७ १७. प्रवचनसार २२७ १८. नियमसार १६६-१७२
खण्ड २३, अंक ४
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