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________________ अवधारण अवबोध स्मृति स्थापना स्थापना कोष्ठा प्रतिष्ठा प्रतिष्ठा कोष्ठा धारणा की तुलना न्यायवैशेषिक दर्शन सम्मत धारावाहिक ज्ञान तथा संस्कार स्मरण एवं हीनयानीय बौद्ध दर्शन सम्मत जवन, जवनानुबन्ध एवं तदारम्मण पाक से की जा सकती है, उपाध्याय यशोविजयजी ने उसे परिपाकांण के रूप में मीमांसित किया है।४ धारणा-प्रमाण या अप्रमाण ? धारणा मतिज्ञान का भेद है । आगमिक परिभाषा के अनुसार सम्यक्त्वी का सारा ज्ञान प्रमाण है। अतः धारणा के प्रामाण्य के विषय में प्राचीन युग में कोई ऊहापोह नहीं हुआ। प्रमाण व्यवस्था युग में प्रामाण्य का नियामक तत्त्व 'निर्णायकत्व' को मानने से अवग्रह और ईहा के प्रामाण्य पर प्रश्नचिह्न लगा और सिद्धसेनगणी ने उन्हें अप्रमाणघोषित कर दिया ।३५ इसके विपरीत कई आचार्यों ने अवग्रह और ईहा में भी निर्णयांश या निर्णयाभिमुखता को स्वीकार कर उसके प्रामाण्य की स्थापना की क्योंकि अपनी कोटि का निर्णायक ज्ञान उनमें भी होता ही है । प्रामाण्य के निर्णायक तत्त्वों में जब अगृहीत-ग्राहित्व की चचां का समावेश होने लगा तब धारणा की प्रमाणता भी विमर्श का विषय बन गई । प्रतीत होता है कि बौद्ध आचार्य धर्मकीर्ति के प्रभाव से अनधिगतार्थग्राही ज्ञान की प्रमाणता की स्थापना करने वाली इस परम्परा के पुरस्कर्ता भट्ट अकलंक ही थे। माणिक्यनन्दी आदि आचार्यों ने भी उनका अनुकरण किया और दिगम्बर आम्नाय में धारणा तथा धारावाहिक ज्ञानों की प्रमाणता पर आक्षेप की संभावना हई । स्वामी वीरसेन ने इस विषय में अपनी स्वतंत्र सूझ का परिचय देते हुए श्वेताम्बर आचार्यों के समान धारणा की प्रमाणता को स्वीकार किया। उनकी मुख्य युक्तियां हैं १. धारणा फलज्ञान है पर अप्रमाण नहीं । यदि केवल हेतुज्ञान को ही प्रमाण माना जाए तो अवग्रह के अतिरिक्त सभी ज्ञान अप्रमाण हो जायेंगे। २. धारणा अवाय का कार्य है पर इसे अप्रमाण नहीं माना जा सकता क्योंकि सारे ज्ञान अपने पूर्ववर्ती ज्ञान के कार्य होने में अप्रमाण हो जाएंगे। ३ धारणा ज्ञ'न यदि ग्रहीतग्राही होने मे अप्रमाण माना जाए तो युक्त नहीं क्योंकि अविस्मरण का हेतृभूत लिंग उसने अपूर्व रूप में ग्रहण किया है ।३६ ___ इस प्रकार धारणा के स्तर में गोचरज्ञान का पूर्ण विकास हो जाता है । अवाय के स्तर में उपलब्ध निर्णय की धारणा से ही वह गोचर ज्ञान में बदल जाता है । और यही इस चतुर्थ चरण का वैशिष्ट्य है । इन्द्रिय प्रत्यक्ष के ये चार चरण इस बात के स्पष्ट सूचक हैं कि ज्ञान एक ऐसी प्रणाली है जिसमें विभिन्न विषयों एवं विभिन्न प्रकार के निर्णयों का संयोजन, समायोजन होता है। परिणामस्वरूप जब कोई नया ज्ञानांश ग्रहण करना होता है तो उसकी प्रक्रिया में एक विकार पैदा होता है, चैतसिक जगत् में एक हलचल होती है और पूर्व खंड २३, अंक ४ ४०९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524594
Book TitleTulsi Prajna 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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