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संग्रहीत ज्ञान के प्रकाश में उसकी पहचान-सत् असत् धर्मों का परीक्षण प्रारंभ होता है। परीक्षण के बाद हुआ निर्णय पुन: उस कोष में संग्रहीत हो जाता है ।
कोष का उभयमुखी उपयोग है ---आगामी ज्ञान की विकास यात्रा में तथा स्मृति प्रत्यभिज्ञान आदि उत्तरवर्ती ज्ञानांशों में । बोध के मनोविज्ञान की दृष्टि यह सम्पूर्ण चर्चा विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है । क्योंकि ज्ञान में यदि धारणा की कोई उपयोगिता है तो इसके अन्तर्गत मस्तिष्क की याद करने की क्षमता का भी समावेश होना चाहिये । और याद करना तभी संभव होगा जब किसी नयी ग्रहण की गयी बात की पूर्वज्ञात तथ्य के साथ पहचान होगी। जैन दार्शनिकों ने मानव मस्तिष्क एवं उसकी क्षमताओं पर सूक्ष्मता एवं गहनता से विचार किया है । आधुनिक विज्ञान और मनोविज्ञान के साथ उसकी तुलना और विश्लेषणात्मक अध्ययन किया जाए तो स्मृति विकास के क्षेत्र में नव्य संभावनाओं का अविर्भाव हो सकता है।
संदर्भ
१. आवश्यक नियुक्ति गा० ३ २. आवश्यक चूणि पृ० ११ ३. विशेषावश्यक भाष्य गा० १८० ४. नन्दी चणि पृ० ३४ तव्विसेसावगतऽत्थस्स धरण - अविच्युती धारणा ५. विशेषावश्यक भाष्य गा० २९१ ६. सर्वार्थ सिद्धि १११५ अनुच्छेद १११ ७. तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी टीका १११५ पृ० ८२,८३ ८. (क) धवला पुस्तक १३ पृ० २१८-१९
(ख) नन्दीमलयगिरीया वृ० १० १६८ ९. प्रमाणमीमांसा १।१।२९ १०. वही ११. विशेषावश्यक भाष्य गा० ३३४ १२. नन्दी चूणि प० ४१ १३. (क) नन्दी हारिभद्रीया टीका पृ० ५७
(ख) नन्दी मलयगिरीया व० प० १६८ १४. धवला पुस्तक ९ पृ० ५३ १५. नन्दी चूणि पृ० ३७ १६. वही १७. नन्दी हारिभद्रीया टीका पृ० ५१ १८. नन्दी चणि पृ० ३७ १९. नन्दी हारिभद्रीया टीका पृ० ५१ २०. वही-वासनेत्यर्थः । अन्ये तु धारणास्थापनयोर्त्यत्ययेन स्वरूपमाचक्षते । २१. अहिंसा और शांति प० १६२-६३ २२. नन्दी चूणि पृ० ३७
तुलसी प्रज्ञा
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