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________________ उत्पत्ति आत्मा के उन प्रदेशों से होती है जिनका सम्बन्ध द्रव्यमन से है । पंडित सुखलालजी के अनुसार द्रव्यमन का स्थान हृदय है ।" अतः हृदय भाग में स्थित आत्म प्रदेशों में ही मनः पर्यव ज्ञान का क्षयोपशम है । परन्तु शंख आदि शुभ चिह्नों की उत्पत्ति शरीर के सभी अंगों में हो सकती है । अतः अवधिज्ञान के क्षयोपशम की योग्यता शरीर में सर्वत्र है । " साधना के द्वारा जो क्षेत्र अधिक सक्रिय हो जाता है उसके माध्यम से ही अतीन्द्रिय ज्ञान की रश्मियों का निर्गम होता है । शरीर के स्थान विशेष अतीन्द्रियज्ञान के निर्गमन के पथ वन जाते हैं । 'योग दर्शन' में भी शरीर के विशिष्ट स्थानों पर एकाग्र होने से विशेष प्रकार का ज्ञान उत्पन्न होता है - ऐसा उल्लेख है । वहां उल्लेख है कि सूर्य में संयम करने से भुवनज्ञान होता है ।" नाभिचक्र में संयम करने से शारीरिक संरचना का ज्ञान हो जाता है । ऐसे अनेक वर्णन वहां प्राप्त हैं । PX कुछ परामनोवैज्ञानिको के अनुसार मनुष्य का मस्तिष्क रहस्यों के तंतुजाल से बना एक करिश्मा है। वह अपनी एकाग्रता का विकास कर ग्रहण और प्रेषण की कई ऐसी क्षमताओं को उजागर कर सकता है जो इन्द्रिय बोध की मर्यादा में नहीं आती । कुछ परामनोवैज्ञानिकों की अवधारणा है कि हमारे शरीर से उत्सर्जित एवं विकीरित बायोप्लाज्मा एनर्जी या साइकोट्रोनिक एनर्जी अतीन्द्रिय शक्तियों का आधार है । ध्यान, साधना आदि के द्वारा इनकी लयबद्धता को विकसित कर विशिष्ट बोध क्षमता का विकास किया जा सकता है । कुछ विद्वानों के अनुसार अतीन्द्रियज्ञान का आधार मनुष्य की छठी इन्द्रिय है । यह इन्द्रिय कोशिकाओं के एक-एक छोटे समूह के रूप में मस्तिष्क के नीचे रहती है, जो हर व्यक्ति में समान रूप से सक्रिय नहीं होती । ध्यान, साधना, अभ्यास, मनन आदि के द्वारा उत्पन्न आध्यात्मिक एकाग्रता इसकी सक्रियता को वृद्धिगत करती है । कुछ विचारकों के अनुसार हमारे मनः संस्थान का केवल ९% भाग ही जाना जा सका है। शेष ९१% भाग जिसे डार्क एरिया कहा जाता है, वही अतीन्द्रिय क्षमताओं का निवास स्थान है । तालुतल से जीभ का स्पर्श कर मस्तिष्क की प्रसुप्त एवं अविज्ञात शक्तियों को जागृत एवं प्रदीप्त किया जा सकता है। वैज्ञानिक दृष्टि से इसे पिच्युटरी और पिनीयल का स्थान कहा जा सकता है । शरीर विज्ञान के अनुसार केन्द्रिय नाड़ी तन्त्र का भाग अतीन्द्रिय ज्ञान की क्षमता का धारक हो सकता है । नाड़ीतन्त्र का वह भाग जहां ग्रन्थियों का निवास है, अतीन्द्रिय ज्ञान की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं । निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि पूरे शरीर में चैतन्यकेन्द्र अवस्थित हैं । साधना के तारतम्य के अनुसार जो चैतन्यकेन्द्र जागृत होता है उसी में से अतीन्द्रियज्ञान की रश्मियां बाहर निकलने लगती हैं । यदि पूरे शरीर को जागृत कर लिया जाता है तो पूरे शरीर में से अतीन्द्रिय ज्ञान की रश्मियां निकलने लगती हैं । २५ कभी-कभी बिना साधना के ही चोट आदि लगने से भी, शरीर का कोई ही प्रदेश अतीन्द्रिय चेतना का वाहक बन जाता है । इस प्रकार चैतन्य केन्द्र का विषय साधना की दृष्टि से बहुत ४०० तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524594
Book TitleTulsi Prajna 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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