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________________ अतीन्द्रिय ज्ञान की रश्मियां बाहर निकलती है। शरीर का जो स्थान करण/चैतन्य केन्द्र बन जाता है उसी के माध्यम से ज्ञान रश्मियां बाहर निकलती हैं। जीव प्रदेशों के क्षायोपशमिक विकास के आधार पर चैतन्यकेन्द्रमय शरीर प्रदेशों के अनेक संस्थान बनते हैं । 'षट्खण्डागम' में इसका स्पष्ट उल्लेख है । क्षेत्र की अपेक्षा से शरीर प्रदेश अनेक संस्थान में संस्थित होते हैं । जैसे- श्रीवत्स, कलश, शंख, स्वस्तिक, नंद्यावर्त आदि। "भगवती सूत्र में भी विभंग ज्ञान संस्थानों का उल्लेख किया गया है। उसमें अनेक संस्थानों के नाम उपलब्ध हैं । जैसे-वृषभ का संस्थान, पशु का संस्थान पक्षी का संस्थान आदि ।" अवधिज्ञान एवं विभंगज्ञान दोनों शरीरगत संस्थान होते हैं-यह मत निर्विवाद है। अवधिज्ञान के प्रसंग में 'षट्खंडागम' में करण शब्द का प्रयोग हुआ है। इस प्रसंग में करण शब्द का अर्थ है-शरीर का अवयव, शरीर का एक भाग जिसके माध्यम से अवधिज्ञानी पुरुष विषय का अवबोध करता है। शरीर में कुछ विशिष्ट स्थान होते हैं जहां चेतना सघनता से रहती है । यह सिद्धांत अनेक ग्रन्थों में स्वीकृत है । 'सुश्रुत संहिता' में २१. संधियों और १०७ मर्म-स्थानों का उल्लेख प्राप्त है। " अस्थि, पेशी और स्नायुओं का संयोगस्थल 'संधि' कहलाता है। मर्म-स्थानों में प्राण की बहुलता होती है। इसीलिये वे अवयव, मर्मस्थान कहलाते हैं।" चैतन्य केन्द्र इन्हीं मर्म स्थानों के भीतर है। हठयोग में भी प्राण और चैतन्य प्रदेशों की सघनता के स्थल ध्यान के आधार रूप में सम्मत है । जैन साधना पद्धति के रूप में विख्यात 'प्रेक्षाध्यान' में भी शरीर के कुछ विशिष्ट स्थानों को चैतन्य केन्द्र के रूप में स्वीकृत किया गया है ।" उन केन्द्रों पर ध्यान करने से वृत्तियों के परिमार्जन के साथसाथ अतीन्द्रिय ज्ञान शक्ति का विकास होता है । यह अनुभूत तथ्य/सत्य है। 'नंदी', 'पंच संग्रह', 'गोम्मटसार' आदि ग्रन्थों में अवधिज्ञान के उत्पत्ति क्षेत्र की चर्चा की गयी है। पंचसंग्रह' एवं 'नंदी' के अभिमतानुसार तीर्थकर नारकी एवं देवता को अवधिज्ञान सर्वांग से उत्पन्न होता है तथा मनुष्य एवं तियंचों के शरीरवर्ती शंख, कमल, स्वस्तिक आदि करण चिन्हों से उत्पन्न होता है ।" जैसे शरीर में इन्द्रिय आदि का आकार नियत होता है वैसे शरीरवर्ती चिह्नों का आकार नियत नहीं है। एक जीव के शरीर के एक ही स्थान में अवधिज्ञान का करण होता है-ऐसा कोई नियम नहीं है। किसी भी जीव के एक, दो, तीन आदि क्षेत्र रूप शंख आदि शुभ स्थान संभव है। ये शुभ स्थान अवधिज्ञानी, तिर्यञ्च एवं मनुष्य के नाभि के ऊपर के भाग में होते हैं तथा विभंग अज्ञानी तिर्यञ्च एवं मनुष्य के नाभि से नीचे अधोभाग में गिरगिट आदि आकार वाले अशुभ संस्थान होते हैं। विभंगज्ञानियों के सम्यक्त्व आदि के फलस्वरूप अवधि ज्ञान के उत्पन्न होने पर गिरगिट आदि अशुभ आकार मिटकर नाभि से ऊपर शंख आदि शुभ आकार हो जाते हैं। जो अवधिज्ञानी सम्यक्त्व के नाश से विभंगज्ञानी हो जाते हैं उनके शुभ संस्थान मिटकर अशुभ संस्थान हो जाते हैं। अवधिज्ञान एवं मनः पर्यवज्ञान की उत्पत्ति के सम्बन्ध में 'गोम्मटसार' के मन्तव्य से भी शरीरगत विशिष्ट अतीन्द्रिय केन्द्रों का बोध होता है। मन:पर्यव-ज्ञान की खंड २३, बंक ४ ३९९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524594
Book TitleTulsi Prajna 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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