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________________ साथ सम्पर्क स्थापित करती हैं। अतीन्द्रियज्ञान के लिए शरीर में कोई नियत स्थान नहीं है किन्तु शरीर का जो भी भाग, करण बन जाता है उसके द्वारा अतीन्द्रिय चेतना का प्रकटीकरण हो जाता है । अवधिज्ञान के लिए कोई एक नियत प्रदेश या चैतन्य केन्द्र शरीर में नहीं है । अवधि ज्ञान की रश्मियों के बाहर आने के लिए शरीर के विभिन्न प्रदेश या चैतन्य केन्द्र साधन बनते हैं । 'नंदी सूत्र' में आनुगामिक अवधिज्ञान के दो भेद किये गये हैं- अंतगत और मध्यगत । अन्तगत अवधि वहां पर तीन प्रकार का निर्दिष्ट है - पुरतः अन्तगत, मार्गत ( पृष्ठतः ) अन्तगत एवं पार्श्वतः अन्तगत । अवधिज्ञान के ये भेद ज्ञाता, शरीर के जिस प्रदेश से देखता है उसके आधार पर किये गये हैं । अन्तगत अवधिज्ञान की रश्मियां शरीर के पर्यंतवर्ती (अग्र, पृष्ठ और पार्श्ववर्ती) चैतन्य केन्द्रों के माध्यम बाहर आती है । पुरतः, मार्गतः एवं पार्श्वतः अवधिज्ञान के भेद एवं नामकरण शरीर के आधार पर हुए हैं । शरीर के जिस भाग से अवधिज्ञान की रश्मियां निकलती हैं उसका वही नाम दे दिया गया है । मध्यगत अवधिज्ञान की रश्मियां शरीर के मध्यवर्ती चैतन्य केन्द्रोंमस्तक आदि से बाहर निकलती हैं । सर्व आत्म प्रदेशों में आवरण विलय से विशुद्धि होने पर भी जो औदारिक शरीर की एक दिशा से देखता है, वह अन्तगत अवधिज्ञान है ।" उसके तीन भेद हैं १. पुरतः अन्तगत अवधिज्ञान औदारिक शरीर के आगे के भाग से ज्ञेय को प्रकाशित करता है । २. मार्गतः अन्तगत — जो ज्ञान शरीर के पीछे के प्रदेश से ज्ञेय को प्रकाशित करता है । ३. पार्श्वतः अन्तगत — जो अवधिज्ञान शरीर के एक पार्श्व अथवा दोनों पाश्र्व से पदार्थों को प्रकाशित करता है । मध्यगत अवधिज्ञान -- जिस ज्ञान के द्वारा ज्ञाता चारों ओर से पदार्थों का ज्ञान करता है वह मध्यगत अवधिज्ञान है । औदारिक शरीर के मध्यवर्ती स्पर्धकों की विशुद्धि, सब आत्मप्रदेशों की विशुद्धि अथवा सब दिशाओं का ज्ञान होने कारण यह मध्यगत अवधिज्ञान कहलाता है ।" एक दिशा में जाननेवाला अवधिज्ञान अन्तगत अवधिज्ञान है । सब दिशाओं से जानने वाला अवधिज्ञान मध्यगत अवधिज्ञान है ।" 'षट्खण्डागम' के एक क्षेत्र और अनेक क्षेत्र अवधिज्ञान की तुलना अन्तगत एवं मध्यगत अवधि ज्ञान से की जा सकती है । जिस अवधिज्ञान का करण जीव के शरीर का एक देश होता है वह एक देश अवधिज्ञान है । जो अवधिज्ञान प्रतिनियत क्षेत्र की वर्जना कर शरीर के सब अवयवों में रहता है वह अनेक क्षेत्र अवधिज्ञान है । " अवधिज्ञान के प्रसंग में आगत- अन्तगत एवं मध्यगत ये दोनों शब्द शरीर में स्थित चैतन्य केन्द्रों के गमक हैं । अप्रमाद के अध्यवसाय को जोड़ने वाले शरीरवर्ती साधन को चक्र या चैतन्य केन्द्र कहा जाता है ।" इन कर्म विवरों (चैतन्य केन्द्र ) से ही तुलसी प्रशा ३९८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524594
Book TitleTulsi Prajna 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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