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________________ महत्वपूर्ण है । जैन दर्शन के अनुसार आत्मा पूरे शरीर में व्याप्त होती है किन्तु उसके प्रदेश या चैतन्य की सघनता एक जैसी नहीं होती। शरीर के कुछ भागों में चैतन्य सघन होता है और कुछ भागों में विरल । अतीन्द्रियज्ञान शक्ति विकास और आनन्द की अनुभूति के लिए उन सघन क्षेत्रों की सक्रियता सबके लिए बहुत महत्वपूर्ण है ।" इस दृष्टि से यह विषय पर बहुत मननीय है । अपेक्षा है इस विषय पर आधुनिक ज्ञानविज्ञान की अवधारणाओं के साथ विमर्श किया जाए जिससे ज्ञान के गूढ रहस्यों का व्यवहार जगत में सलक्ष्य प्रयोग हो सके । सन्दर्भ १. तत्वार्थ सू. १/९। २. वही. १/११ । ३. न्याय कणिका-'साहाय्यापेक्ष परोक्ष' । ३/१ । ४. तत्त्वार्थ सू. १/१२। ५. न्याय कणिका २/४ । ६. अन्ययोग व्यवच्छेदिक गा. ९-यत्रैव यो दृष्ट गुण स तत्र........ । ७. नंदी सू. १०/११ । ८. नंदी चू. पृ १६ । ९. वही-पृ. १६ । १०. नंदी सू. १६ ११. षट्खण्डागम, पुस्तक १३ पृ. २९४-जस्स ओहिणाणस्य जीवसरीरस्स एगदेसो करण होदि तमोहिणाणमेगक्खेत्तं णाम । जमोहिणाणं पडिणियदरवेत्तवज्जिय सरीर सध्वावयवेसु वट्टदि तमणेयक्खेत्तं णाम । १२. अप्रमादाध्यवसायसंधानभूतं शरीरवर्तिकरणं चैतन्यकेन्द्रं चक्रमिति यावत् । आचारांग भाष्यम् सू. ५/२० । १३. षट्खण्डागम, पु. १३ पृ. २९६- खेत्तदो ताव अणेयसंठाण संठिदा । सिरिवच्छ कलस संख सोत्थिय णंदावत्तादीणि संठाणाणि णादत्वाणि भवति । १४. भगवई ८/१०३-विभंगनाणे अणेगविहे........नाणासंठाण संठिए पण्णत्ते। १५. आचारांग भाष्यम् पृ. २४७ -अवधिज्ञान प्रसंगे करणपदस्यार्थों भवति शरीरावयवा, शरीरैकदेशो वा यस्माद् अवधिज्ञानी विषयं जानाति । १६. सुश्रुतसंहिता, शरीरस्थानम् ५/२६, ६/३१ १७. स्याद्वादमंजरी पृ. ७७-बहुभिरात्मप्रदेशैरधिष्ठिता देहावयवाः मर्माणि । १५. प्रेक्षा सिद्धांत और प्रयोग पु. ९८ । १९. (क) पंच संग्रह (संस्कृत) १/५८ - तीर्थकृच्छवाभ्रदेवानां सर्वांगोत्थोऽवधिर्भवेत् । नृतिरश्चां तु शंखाम्जस्वस्तिकाद्यङ्ग चिह्नजम् ॥ खण्ड २३, अंक ४ ४०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524594
Book TitleTulsi Prajna 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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