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अंकन मिला है । दृश्य में एक आसन या चक्रम है जिसके पीछे बायीं ओर चार सिद्धों के झांकते मुख हैं और दायीं ओर पांच पुरुष हाथ जोड़े खड़े हैं । आसन के आगे कई बांसों से बनाई गई एक टिकटी जल रही है । टिकटी के एक सिरे पर एक सर्प तथा दूसरे सिरे पर एक लघु मानव-आकृति है । टिकटी के वायीं ओर अपने घुटने पर बाएं हाथ की कोहनी टिकाए और हथेली पर मस्तक टिकाए एक व्यक्ति शोकमुद्रा में बैठा है । नीचे अगल-बगल दो पिशाच-मुण्डों के बीच एक पञ्चाङ्गुलांक है। दृश्य के ऊपर एक ब्राह्मी लेख है- 'द द नि क मो च क मो।"
इस दृश्य को समझने में विभिन्न विद्वानों ने अपने भिन्न-भिन्न मत व्यक्त किए हैं । कनिंघम ने इस दृश्य में सोलह बौद्ध नरकों में से एक का, बेणीमाधव बरुआ ने उरगजातक का" और ल्यूडर्स ने किसी बोधिसत्त्व की तपस्या तथा उसके द्वारा की गई मार-विजय का अंकन माना है।" परन्तु दृश्य में उत्कीर्ण पञ्चाङ्गुलांक की ओर किसी विद्वान ने बिल्कुल ध्यान नहीं दिया। यहां तक कि उसका उल्लेख तक नहीं किया। संभव है इस दृश्य में पंचतत्त्व के प्रतीक के रूप में पञ्चाङ गुलांक बनाया गया हो । चूंकि दृश्य श्मशान का है, इसलिए संभवतः पञ्चाङ गुलांक बनाकर कलाकार यह बतलाना चाहता हो कि जिन पञ्चतत्त्वों (क्षिति, जल, पावन, गगन, समीर) के समानुपातिक संगठन से शरीर का निर्माण होता है, उनके विघटन से शरीर नष्ट हो जाता है और यही जन्म और मृत्यु का मर्म है। राजस्थान और मध्यप्रदेश में मिलने वाले सती-स्तंभों पर भी थापे या पंजे को उकेरा गया है। इसे छत्तीसगढ़ क्षेत्र में हाथा करते हैं । सती स्टोन्स के थापे सती के स्मारक होने के साथ-साथ संभवतः जीवन और मृत्यु का संकेत भी देते हैं। अलम और पञ्चागुल
पञ्चाङ गुल का प्रयोग भारतीय मुसलमानों में भी 'पंजा' के रूप में पाया जाता है। मोहर्रम के दिनों में जब वे जुलूस निकालते हैं तब अलम (झण्डा) उठाते हैं । अलम रगीन कपड़े से लपेटा हुआ एक लम्बा बांस होता है जिसमें रंगीन कपड़े की ही एक फहराती हुई पताका जोड़ ली जाती है । अलम के शीर्ष पर प्रायः चांदी का एक पंजा लगा रहता है। इसीलिए इस आलम को पंजा भी कहते हैं । मुस्लिम विश्वास में इसे हजरत अब्बास अथवा हजरत अली का पंजा माना जाता है जिसे अलम के रूप में उठाया जाता है। ऐसा जान पड़ता है कि मुसलमानों के भारत में आ जाने के उपरांत ही उनमें पंजे का महत्त्व पनपा और बढ़ा होगा। राजस्थान में चुरू और श्रीगंगानगर के बीच गोगापीर की दरगाह या मंदिर है। इसके पुजारी हिन्दू और मुसलमान दोनों होते हैं जो मिलजुलकर दरगाह की व्यवस्था करते हैं और चढ़ावे को आपस में बांट लेते है । इस दरगाह पर आने वाले हिन्दू मनौती में गोबर और हल्दी से दीवार पर स्वस्तिक बनाते हैं और मुसलमान थापे की छाप लगाते हैं। पंजा साहिब भाषा-विज्ञान के प्रकाण्ड विद्वान और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व प्राचार्य
तुमसी प्रज्ञा
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