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________________ सर्वगात्रेषु विन्यस्तैः रक्तचन्दन हस्तक : पिष्टचूर्णाकीर्णैश्च पुरुषोऽहं पशूकृतः ' इस उदाहरण से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीनकाल में शूली पर लटकाए जाने से पहले अभियुक्त के अंग पर भी लालचन्दन के पञ्चांगुलांक अंकित किए जाते थे । पूर्णकलश की सजावट पूर्णकलश अथवा मंगलकलश के बिना तो हमारे कोई भी धार्मिक या सामाजिक अनुष्ठान पूरे ही नहीं होते हैं । बाणभट्ट के ग्रन्थ 'हर्षचरित' में एक कलश का उल्लेख मंगल कलश के रूप में पाया जाता है । बाणभट्ट को जब सम्राट हर्षवर्द्धन ने अपने राजदरबार में बुलवाया तो जाने से पहले बाणभट्ट ने कई मांगलिक कृत्य किए । इन्हीं में मंगलकलश के दर्शन करना भी सम्मिलित था। जिस मंगलकलश के दर्शन बाणभट्ट ने किए थे वह गोबर से लिपे हुए चबूतरे पर स्थापित था । उस मंगलकलश के मले में सफेद फूलों की माला बंधी थी, उसके मुख पर आम्रपल्लव रखे हुए थे और उसकी पिटार पर पंचांगुल का मंगल चिह्न अंकित था । (पिष्टपञ्चाङ्गुलपाण्डुरम् ) । १° शस्त्र की सजावट पंचांगुल के चिह्न से एक युद्ध-शस्त्र के सजे होने का उल्लेख वाल्मीकीय रामायण में मिला है, निकुम्भ रावण का एक मंत्री और कुम्भकरण का वीर्यवान पुत्र था । इसने हनुमान के साथ घोर युद्ध किया परन्तु अन्त में हनुमान ने इसका वध कर दिया । इसी निकुम्भ का परिघ फूल मालाओं तथा पंचांगुल के मंगल चिह्न से अलंकृत थाततः स्रग्दामसन्नद्धं दत्तपञ्चाङ गुलं शुभम् आददे परिषं धीरो महेन्द्रशिखरोपम् ॥" मृत्तिका पञ्चाङ गुलांक जर्मन पुरातत्त्वविद् हर्बर्ट हटेल ने सोंख (मथुरा) टीले की खुदाई में २७ स्तर ( प्रथम शताब्दी ई० पू० ) से पकाई मिट्टी का एक पञ्चाङ्गुल खोजा है । ३.१x२.१ से० मी० माप वाले इस पञ्चाङ गुल की पांचों उंगलियां सीधी खुली हुई हैं और हथेली में वैजयन्ती, नन्द्यावर्त और स्वास्तिक के चिह्न बने हुए हैं । १२ किसी मृण्मूर्ति का अंग न होकर यह एक स्वतंत्र पञ्चाङ, गुल है । इस पञ्चाङ्गुल के पाए जाने से यह तथ्य प्रकट होता है कि पञ्चाङ गुल प्रतीक न केवल चित्रित ही किए जाते थे अपितु मांगलिक अवसरों पर उनके मूर्त स्वरूप का भी उपयोग किया जाता था । संभव है मृत्तिका पञ्चाङ्गुल का कोई तांत्रिक उपयोग रहा हो, क्योंकि कतिपय ज्योतिष ग्रंथों में पञ्चाङ गुली नाम की देवी का उल्लेख पाया जाता है । श्मशान में पञ्चाङ्गुलांक भरहुत के स्तूप की वेदिक - शीर्ष पर एक फलक में पञ्चाङ्गुल का एक विचित्र २३, अंक ४ ३८९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524594
Book TitleTulsi Prajna 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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