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________________ पञ्चांगुल पंक्तियां भी उकेरी गई हैं जो तत्कालीन भवन-सज्जा की परम्परा पर प्रकाश डालती हैं | भरहुत-शिल्प से दो उदाहरण - स्तूपों तथा एक बोधिचक्रम' का प्राप्त हुआ है। इनमें एक स्तूप की मेधि की दीवार पर तथा दूसरे के अण्ड भाग पर पञ्चाङ्गुल चिह्न पंक्तिबद्ध दिखाई देते हैं। चैत्याकार खिड़कियों वाले एक स्तम्भमंडप के भीतर रत्नचंक्रम है जिसके ऊपर फूल बिखरे हैं और जिसकी भित्ति पर पञ्चांगुलो कीएक पंक्ति है । मथुरा से मिले एक उत्कीर्ण फलक पर बोधिघर का अंकन है जिसकी आधारभित्ति पर भी थापों की एक पंक्ति बनी दिखाई देती है । पशुओं की सजावट थापे या पञ्चांगुलांको से पालतू पशुओं को सजाने की परम्परा भी अत्यन्त प्राचीन काल से आज तक समाज में प्रचलित है । दीपावली के दूसरे दिन प्रतिपदा को गोधन पूजा का पर्व मनाया जाता है । उस दिन गांवों में घर के पालतू पशुओं जैसे गाय, बैल, भैंस आदि के सींगों में गेरू एवं तेल का लेप लगाया जाता है, उनके गलों में घण्टियां लटकाई जाती हैं और गेरू एवं तेल के लेप से उनके अंग पर थापे भी लगाए जाते हैं । पशुओं के अंग पर पञ्चांगुलांक बनाने की परम्परा के कई प्राचीन पुरातात्त्विक और साहित्यिक साक्ष्य पाए गए हैं । मन्दसौर (मध्यप्रदेश) से प्राप्त यशोधर्मन के स्तंभ-अभिलेख के प्रारंभ में शिव की वंदना है । उसमें कहा गया है कि शूलपाणि (शिव) की वह लम्बी पताका तुम्हारे शत्रु की शक्ति का मर्दन करे जिसमें वृषभ का चिह्न बना है और जिसके अंग पर पार्वती द्वारा पञ्चांगुल का लांछन अंकित किया गया है उक्षाणं तं दधानः क्षितिधरतनयादत्त पञ्चागुलांक द्राधिष्ठः शूलपाणे: क्षपयतु भवतां शत्रुतेजांसि केतुः । बलिपशु की सजावट में भी पञ्चाङ्गुलांक का उपयोग किया जाता था। इसका एक उल्लेख मतकभत्त जातक कथा में तथा दूसरा शूद्रक रचित नाटक मृच्छकटिकम् में पाया जाता है । मतकभत्त जातक में एक गुरु श्राद्ध करने के लिए तैयार है। श्राद्ध में वह एक मेष की बलि देना चाहता है । वह गुरु अपने एक शिष्य को बुलाकर कहता है कि "तात ! इस मेष को नदी पर ले जाकर, नहलाकर, इसके गले में माला पहनाकर तथा इसके अंग को पञ्चाङ्गुलांकों से सजाकर ले आओ" ( ताता इमं एलकं नदि ने-वा नहापेत्वा कण्ठे मालं परिक्खपित्वा पञ्चङ गुलिकं दत्वा मण्डेत्वा आनेथा) । ' आज से लगभग डेढ़ हजार वर्ष पहले गुप्तकाल में रचे गए संस्कृत नाटक 'मृच्छकटिकम्' में एक ऐसा उल्लेख है जिसमें बलि दिए जाने वाले पशु के अंग को लाल थापों से सजाने का संकेत है । चोरी के अभियोग में जब नायक चारुदत्त को शूली पर लटकाने के लिए ले जाया जाता है तब वह कहता है कि "पुरुष के भाग्य का कार्य अचिन्तनीय है जिससे मैं ऐसी दशा को प्राप्त हो गया हूं, क्योंकि समस्त अंगों पर लालचन्दन के थापों के द्वारा तथा पीठी और तिलों के चूर्ण से व्याप्त करके मुझ पुरुष को ही बलिपशु बना दिया गया"--- ३८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा www.jainelibrary.org
SR No.524594
Book TitleTulsi Prajna 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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