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________________ विवाह विवाह के अवसर पर थापे या पञ्चाङ्गुलांक का महत्त्व आज भी भारतीय समाज में सर्वज्ञात है। तिलक के अवसर पर कन्या पक्ष के लोग हल्दी, अक्षत, पानसुपाड़ी, रोली-रक्षासूत्र, वस्त्र फल-फूल, मिष्ठान्न तथा द्रव्य आदि से थाल सजाकर वर पक्ष के यहां ले जाते हैं। उस थाल में जो कपड़ों के थान होते हैं, उन पर कन्या के दायें हाथ की थापें लगवाकर भेजी जाती हैं। विवाहोपरान्त जब नव वधू घर में प्रवेश करती है, तब उस अवसर पर भी उसके दायें हाथ के थापे लगवाए जाते हैं । संभव है, प्रारम्भ में इन थापों के आधार पर सही कन्या की पहचान की जाती रही हो और आगे चलकर यह थापे लगाने की प्रथा रूढ़ हो गई हो । विवाह-मण्डप के खम्भ पर भी या तो ऐपन से थापे लगाए जाते हैं अथवा कपड़े पर थापे लगाकर उसे खम्भ पर लपेट दिया जाता है । ऐसे थापे प्रवेशद्वार पर, कोइबर के स्थान पर और मण्डप के नीचे स्थापित मंगल कलश पर भी लगाए जाते थे। बाणभट्ट के ग्रन्थ 'हर्षचरित' में हर्षवर्द्धन की बहन राज्यश्री के विवाह का विस्तृत वर्णन पाया जाता है । उसमें कहा गया है कि उस अवसर पर आए हुए राजा लोग स्वयं फेटा लगाकर अनेक प्रकार के कामों में जुट गए। कोई सिन्दूरी रंग से मांजकर फर्श को चमकाने लगे, कुछ ब्याह की वेदी के खम्भों को अपने हाथ से खड़ा करने लगे और कुछ उन्हें गीले ऐपन के थापों, आलता के रंग में रंगे कपड़ों और आम तथा अशोक के पत्तों से सजाने लगे। (क्षितिपालैश्च स्वयमाबद्धकक्षः स्वाम्यर्पित कर्म शोभासम्पादनाकुछः सिन्दूरकुट्टिमभूमीश्च मसणयद्भिः विनिहितसरमातर्पणहस्तान् विन्यस्तालक्तपाटकांश्च) २ उस अवसर पर ओखली, मुसल, सिल आदि घर के उपकरणों पर भी ऐपन के थापे लगाए गए थे (पिष्टपञ्चाङ गुलमण्ड्यमानोलूखलमुसलशिलाद् युपकरणम्) ।' भवनों की सजावट ___ थापों की पांतों से सजे-सजाए घर आज भी गांवों में दिखाई देते हैं । भवनों को थापों या पञ्चाङ गुलांकों से सजाने की परम्परा बड़ी पुरानी है । आज से लगभग दो हजार वर्ष पहले श्रीलंका में रचे गए ग्रन्थ महावंश में एक महास्तूप के निर्माण का विस्तृत वर्णन है। इसमें कहा गया है कि श्रीलंका के राजा दुट्ठगामिनी ने महास्तूप का निर्माण करवाया और उसमें धातु (अवशेष) की स्थापना की। इसके बाद उसने दर्जी से सफेद वस्त्र का गिलाफ बनवाकर उससे महाचैत्य को ढंकवाया तथा चित्रकारों से उस वस्त्र पर सुन्दर-सुन्दर वेदिका, पूर्णघटों की पंक्ति और पञ्चाङ गुलांकों की पंक्ति चित्रित करवाई (चित्तकारेहि कारेसि वेदिकं तत्थ साधुकं पन्ती पुण्णघन्टानं च पञ्चाङ्गुलांकपन्तिकम् ।) महावंश के इस वर्णन की सम्पुष्टि शुंगकालीन भरहुत तथा मथुरा-शिल्प से होती है । भरहुत तथा मथुरा के उत्कीर्ण शिल्प में स्तूपों, विहारों, बोधिघरों और चंक्रमों (वह चबूतरा जिस पर बुद्ध टहला करते थे) के अंकन पाए गए हैं जिन पर खंर २३, मंक ४ ३८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524594
Book TitleTulsi Prajna 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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