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________________ निषेधात्मक पक्ष में मेरी सभी संभावनाओं का शून्य है । हम न मृत्यु की खोज कर सकते हैं, न ही प्रतीक्षा । जन्म समान मृत्यू भी बाहरी तथ्य है । मृत्यु जीवन का लक्ष्य नहीं, यह तत्व की मीमांसीय संरचना का अंश है। न हम इसका अनुभव कर सकते हैं न कल्पना । सात्र यह विचार करने पर विवश होता है कि मृत्यु क्या है ? अंत में यही निष्कर्ष दे पाता है कि मृत्यु सभी संभावनाओं का विनाश है । यह मानव जीवन को अर्थ प्रदान करने की अपेक्षा उसे निरर्थक बनाती है। - "It is meaningless that we are born. It is meaning less that we die." अर्थात् हमारा मरना व जन्म लेना दोनों ही अर्थहीन है। मात्र के स्वतंत्र व्यक्तित्व को परिभाषित करते हुए लेखक लक्ष्मी सक्सेना कहते हैं "सात्र उन व्यक्तियों में सा नहीं था, जो किसी भी सीमा में बंधकर जीवन यापन करना सही मानते थे। यह जगत उसकी चेतना के लिये सतत चुनौती है। जिसे वह चाहकर भी सर्वथा आत्मसात् करने में असमर्थ है। __ चेतना के स्वतंत्र व्यक्तित्व के साथ संबंध की व्याख्या करते हुए सात्र स्पष्ट कहता है कि निषेधात्मक अनुभूतियों के साथ चेतना के अतिक्रमी स्वरूप का हमें स्पष्ट बोध होता है । स्वतंत्रता चेतना की विशेषता नहीं है, वह स्वयं स्वतंत्रता है । अपनी इस स्वतंत्रता का प्रयोग करते हुए वह अपने आपका, अपने संसार का सृजन करती है। जिस प्रकार जैन दर्शन की मान्यता है कि मनुष्य भव में ही जीव अपने कर्मक्षय हेतु पुरुषार्थ करने में समर्थ हैं । उसी प्रकार सार्च की धारणा है कि मनुष्य होने में ही उसकी स्वतंत्रता निहित है। - अस्तित्ववादी दार्शनिकों में सात्र ही एक ऐसा दार्शनिक है, जिसने स्वतंत्रता पर अधिक बल दिया है। क्योंकि मनुष्य की मूल प्रकृति स्वतंत्रता है। उसने मनुष्य को इस सीमा तक स्वतंत्रता प्रदान की है कि संसार की कोई शक्ति या परिस्थिति उसकी बाधक नहीं है । वह नैतिक दृष्टि से मनुष्य को ही उत्तरदायी ठहराता है। सात्र ने चेतना के कारण ही मनुष्य को स्वतंत्र माना है। मनुष्य की स्वतंत्रता उसकी प्रभुता है। उसने स्वतंत्रता का अध्ययन तीन विभिन्न दृष्टिकोणों से किया है। १. व्यक्ति में व्यक्ति को केन्द्र बिन्दु मानकर, २. व्यक्तियों के पारिवारिक संबंध, ३. परिस्थितियों से संबंधित स्थिति में । सार्च मानवीय स्वतंत्रता के साथ नैतिकता को मानता है । वह भाग्य के ऊपर भरोसा नहीं रखता और न ही भौतिक या पारलौकिक नियतवाद को स्वीकार करता है । अपने नैतिक विचारों में सार्च मानवीय उत्तरदायित्व को महत्व देता है। - मनुष्य जो कुछ भी करता है उसके लिये वह पूर्णरूप से उत्तरदायी है। मनुष्य अपने सुख-दुःख के लिये किसी को उत्तरदायी नहीं ठहरा सकता। ___ मनुष्य जो कुछ अपने लिये चयन करता है वह संपूर्ण समाज के लिए होता है। इसलिये मनुष्य नियम निर्माता भी है । इस प्रकार स्पष्ट होता है कि सात्र यह कभी नहीं मानता कि संसार में कोई नैतिक नियम पहले से विद्यमान है और मनुष्य उन्हें , तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524594
Book TitleTulsi Prajna 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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