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________________ सफल उदाहरण युद्ध की विभीषिका देखकर अस्तित्ववाद की उत्पत्ति है । प्रकृति के कार्यों मे वह जब अपने आपको असमर्थ पाता है तब मनुष्य की यह त्रासित संवेदना उसे अनुभव कराती है कि वह संसार में फेंका हुआ है और इसी स्थिति में उसका अपना अस्तित्व उजागर होता है । क्योंकि जन्म उसके चुनाव का विषय नहीं है । उसके लिये निश्चित है, कि एक ना एक दिन उसको मृत्यु अवश्यंभावी है। सार्त्र का त्रास मनुष्य में अकेलेपन से उत्पन्न नहीं होता । सार्त्र मृत्यु के तथ्य से श्रास को अलग करता है । जीवन से जोड़ता है । "त्रास मनुष्य के नैतिक चुनाव के आधार की स्थिति है ।" त्रास आंतरिकता से उत्पन्न होता है। विशेषकर चुनाव की स्थिति में सार्त्र शून्यता के कारण भी त्रास को मानता है । शून्यता का अनुभव सबसे अधिक त्रास में होता है । सार्त्र के लिये मृत्यु महत्वपूर्ण तथ्य नहीं है, मृत्यु जीवन को निरर्थक बना देती है । यहां पर सार्त्र के विचारों से असहमति प्रकट करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ की मान्यता यह है कि मृत्यु नवजीवन का नाम है । सात्र मृत्यु को क्या जीवन को ही लक्ष्य रहित मानता है । वह इस प्रकार मनुष्य के पुरुषार्थ को ही बौना बना देता है। सार्त्र त्रास के अंतर्गत बुरे विश्वास को लेता है । बुरा विश्वास केवल अपने तक ही सीमित है, यह झूठ बोलने जैसा नहीं है । उसमें दो व्यक्तियों की आवश्यकता होती है । परन्तु बुरे विश्वास में मनुष्य स्वयं से ही झूठ बोलता है । वह स्वयं को कटु सत्य से छिपाता है या झूठ को सत्य रूप देना चाहता है, जो उसे अच्छा लगता है । का बुरे विश्वास का संबंध अपने आपसे होता है वह स्वयं को धोखा देता है । सात्रं मानता है कि व्यक्ति की चेतना में बुरे विश्वास की संभावना हमेशा बनी रहती है । मनुष्य जो है उससे भिन्न वह बनना चाहता है । वह इन्हीं स्थितियों के बीच झूलता रहता है । वह बुरे विश्वास में फंस जाता है । सा यह मानता है कि मृत्यु मानव अस्तित्व की मूर्त्तता व अनिश्चितता को प्रदर्शित करती है और वह प्रदर्शन त्रास के रूप में उभरता है । अतः मनुष्य को या प्रामाणिक अस्तित्व को जानना है तो उसे अपने अस्तित्व को संदिग्धता और मूर्त्तता को केवल मान लेना चाहिए। कोई भी व्यक्ति मृत्यु के बाद का अनुमान नहीं लगा सकता, प्रतीक्षा करता रहता है । उसका कथन है- "यह मेरी संभावना नहीं बल्कि सब संभावनाओं का अन्त है । चेतना सदैव इच्छायुक्त है और मृत्यु सभी इच्छाओं का अन्त है। मृत्यु जीवन की चरम स्थापना है। स्वतंत्रता के स्तर पर उसे प्रमाणित करते हुए सा ने 'बीईंग नर्वसनेस' में कहा है- " इस शरीर की मूलत: आवश्यकता है कि वही चुनाव हो जो मैं तत्काल में रहूं । इस आशय से मेरी सीमा मेरी स्वतंत्रता को नियंत्रित करती है । मृत्यु न जीवन की संभावना है, न जीवन से परे कि वस्तु, वह उसे जीवन की सीमा मानता है । सा के मत में मृत्यु की निरन्तर प्रतीक्षा करना असंभव है । मृत्यु अपने खण्ड २३ अंक ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.524594
Book TitleTulsi Prajna 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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