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________________ ३. मनुष्य को भौतिकवाद की चकाचौंध ने इतना प्रभावित कर रखा है कि वह जीवन __के सर्वोच्च मूल्यों की ओर से उदासीन हो रहा है। ४. वर्तमान युग विज्ञान का, यंत्रों का, उद्योग का युग है। जिसने मानवजीवन को वैसा ही निर्जीव बना दिया है । औजार वनाने वाला मनुष्य स्वयं औजार बन गया अस्तित्ववाद सत् से मनुष्य को जोड़ने का ही प्रयास है । कोई पद्धति नहीं है । डा० शिवप्रसाद सिंह ने ठीक ही कहा है कि "यह कोई तयशुदा परिपाटी नहीं है । यह सोचने और विचारने की एक दृष्टि है । यह दृष्टि वस्तुपरक की अपेक्षा आत्मपरक अधिक है। अस्तित्ववाद पाश्चात्य जगत् की सर्वोपरि लोकप्रिय दार्शनिक विचारधारा है। बहुत से विद्वानों ने अस्तित्ववाद और भारतीय दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन करने का प्रयास किया है । जिनमें सर्वप्रथम के. गुरदत्त है। दूसरा प्रयास श्रीनिवासन का है । तीसरा और चौथा कार्य लघुशोध प्रबंध के रूप में विक्रम विश्वविद्यालय में हुआ है । कुमारी स्मिता समर्थ ने "अस्तित्ववाद और भारतीय दर्शन" और कुमारी ममता बिरधरे ने "वेदान्त और सारेन किर्केगार्ड के अस्तित्ववाद का तुलनात्मक अध्ययन" करके आगन्तुक शोधार्थियों के लिये मार्ग प्रशस्त किया है। - दर्शन की विद्यार्थिनी होने के नाते मेरे मन में भी यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही था कि मैं स्वयं विचार करूं कि अस्तित्व क्या है ? मैं कौन हूं ? इस संसार में मेरे जीवन का क्या लक्ष्य है ? क्या वास्तव में हम जो देखते है वही सत्य है ? इसी जिज्ञासा ने मेरी रूचि को अस्तित्ववाद की ओर आकृष्ट किया । मैंने अस्तित्ववाद का अध्ययन किया, मुझे यह अनुभव हुआ कि अस्तित्ववाद के विचार बहुत अंशों में जैन दर्शन के अत्यधिक निकट है। मनुष्य को सर्वदा व सर्वथा स्वतंत्र मानने वाला सा भी मनुष्य पर पड़ने वाले वातावरण के प्रभाव से इन्कार नहीं कर सका है । वह भी यह मानता है, कि बाह्य परिस्थितियां मनुष्य के उद्देश्य पर प्रभाव डालती हैं। यहां पर आचार्य महाप्रज्ञजी भी सात्र के विचारों को प्रतिबद्ध करते हुए लिखते हैं "मनुष्य प्रतिक्रिया का जीवन जीता है, क्रिया का नहीं ?" मनुष्य जीवन में जो सार निर्मित करना पड़ता है वह सार्च के तीन सिद्धांतों पर निर्भर है । वह तीनों सिद्धांत मानव जीवन को अर्थ प्रदान करते हैं। इनमें सर्वप्रथम मूल कामना, दूसरा प्रारम्भिक योजना, तीसरा प्रमाणिक अस्तित्व है । मूल कामना के अनुसार मनुष्य में ईश्वर बनने की कामना है मौलिक रूप से। मनुष्य की चेतना स्वाभाविक कामना संसार की निर्रथकता को स्वीकार नहीं करती। संसार का परिचय पाते ही उससे अपना आदर्शमय संबंध स्थापित करने का प्रयत्न करती है। व्यक्ति जब दुःखों से घबरा कर निराश हो जाता है और त्रास का अनुभव करता है तो माना जाता है कि दर्शन का उदय ही नैराश्य व अकेलेपन से होता है। इसका itesh. R ४९८ तुलसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524594
Book TitleTulsi Prajna 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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