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अस्तित्ववाद
वीरबाला छाजेड़
मानव जब से इस संसार में आया है, तव से ही वह अपने अस्तित्व को लेकर चिंतित रहा है, उसे सदा यह कौतुहल बना रहा है कि वह क्या है ? कौन है ? कहां से आया है ? कहां जायेगा? सभ्यता और संस्कृति के विकसित होने के साथ ही साथ इस कौतुहल ने एक जिज्ञासा का रूप ले लिया। आज यह प्रश्न दर्शन का मुख्य विषय बना हुआ है । मानवीय अस्तित्व को लेकर दर्शन शास्त्र में आरम्भ से चर्चाएं होती रही हैं। प्रत्येक दार्शनिक ने इसका अपने-अपने ढंग से विवेचन किया है और आज यह मानवीय अस्तित्व हमारे सामने दर्शन के एक पक्ष "अस्तित्ववाद" के रूप में प्रस्तुत है। फिर भी पाषाण युग से लेकर आज के इस वैज्ञानिक युग में भी यह प्रश्न हमारे सामने वैसा ही है कि हम वास्तव में क्या हैं ? क्या आज इतनी प्रगति के बाद भी हम अपने सही अस्तित्व को जान पाये हैं और क्या हम इसे सही रूप में जान सकते
___अस्तित्ववाद का जन्म हेगल के निरक्षेप अध्यात्मवाद की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ । हेगल का दर्शन समूहगत "हम' का रूप स्थापित करता है। "मैं" की इसमें कोई सत्ता नहीं। दूसरा आरोप हेगल अस्तित्ववाद के दर्शन के विरूद्ध लगाते हैं कि उसमें प्रतिबद्धता नहीं है, उसमें जीवन नहीं है। यह सब कहा जाता है क्योंकि वैचारिक दर्शन ने मनुष्य को उसके अस्तित्व से दूर कर दिया और इसी कारण अस्तित्ववाद हमारा ध्यान आधुनिक मनुष्य, अस्तित्व से अलगाव और सत्य के साथ उसके संबंध के टूटने की ओर आकर्षित करता है।
सोरेन किकेंगार्ड अस्तित्ववाद का जनक कहा जाता है। वह एक मसीही अस्तित्ववादी दार्शनिक था जो मनुष्य को महत्व देते हुए वह मनुष्य की पीड़ा को, त्रास को स्वतंत्रता और मृत्यु को महत्व देता है ।
हरिदास चौधरी अस्तित्ववाद के पक्ष में कुछ कारण बताते हैं :१. आधुनिक मनुष्य ने सात्विक दृष्टि से सत् के साथ अपने संबंध खो दिये हैं और वह
निराशा व शंका के गर्त में गिर गया है। २. मनुष्य आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक संस्थाओं द्वारा घर दिया गया है । वह अपने
को इन संस्थाओं की रचनाओं में निःसहाय अनुभव कर कहा है। वह यह नहीं कह सकता कि "मैं हूं" अपितु इसके बदले में उसे यह कहना पड़ता है "जैसा तुम चाहते हो, मैं वैसा हूं।"
"तुलसी प्रज्ञा, लाडनूं : खण्ड २३ अंक ४
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