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________________ भक्त अपने भगवान् को सर्वश्रेष्ठ रूप सम्पन्न देखना चाहता है। पितामह भीष्म के भगवान् त्रिभुवनकमन रूप वाले हैं तो गोपियों के प्रभु त्रैलोक्य सौभग रूप से सम्पन्न है। भक्तामरकार मानतुङ्ग का स्वामी अद्वितीय लावण्य से ललित पि यः शान्तराग-रुचिभिः परमाणुभिस्त्वं निर्मापितस्त्रिभुवनैक ललामभूत । तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां यत्ते समानमपर नहि रूपमस्ति ।" हे त्रिभुवन-ललाम ! जिन शान्त-राग वाले और कान्तिमान परमाणुओं से तुम्हें रचा गया है, वे परमाणु इस धरातल पर उतने ही थे। यही कारण है कि इस पृथ्वी पर तुम्हारे जैसा दूसरा कोई रूप नजर नहीं आता। . भक्त कवि महाप्रज्ञ के भगवान्-गुरुदेव तुलसी इतने सुन्दर हैं कि चन्द्रमा की शोभा भी उनके सामने ह्रस्व पड़ जाती है । व्यतिरेक अलंकार की रमणीयता के साथ महाप्रज्ञ के गुरुदेव का दर्शन उपस्थित हैं कलावतां स्यात् प्रथमोऽयमर्यो स्म्यहं द्वितीयस्त्विति चिन्तयातः। चन्द्रस्ततन्द्रो भ्रमति ह्य षापि क्षीणः पुनस्तत् प्रकटीकरोति ॥२॥ अर्थात्, चन्द्रमा ने सोचा -- 'आचार्य तुलसी कलावान व्यक्तियों में प्रधान रूप से पूजनीय हैं और मेरा दूसरा स्थान है क्योंकि मेरी पूजा द्वितीया को होती है ।' उसकी नींद उड़ गई और वह रात को भी इधर-उधर भटकने लगा। वह क्षीण होता है, उपचित होता है । यह क्रम चलता जाता है । ७. सौन्दर्य पात्रों का चयन उपयुक्त विवेचन के बाद आचार्यश्री महाप्रज्ञ के संस्कृत साहित्य में उपस्थापित 'सौन्दर्य-पात्रों' (सुन्दर वस्तुओं) का उपन्यास करने का प्रयास किया जा रहा है । मानवीय सौन्दर्य इस संवर्ग में मनुष्य-जगत् के पात्रों पर विचार किया जा रहा है। चन्दनबाला, भगवान् महावीर, रत्नपाल, रत्नवती, मंत्री, मेघकुमार आदि पात्रों के चारित्रिकसौन्दर्य पर प्रकाश डाला जा रहा है-- चन्दनवाला ... चन्दनबाला महाप्रज्ञकृत खंडकाव्य अश्रवीणा की नायिका है। संसार के दुर्द्धर्ष पापियों से संत्रस्त चन्दनबाला भगवान् के शरणापन्न होती है। कितना संत्रास सहना बड़ा उस बेचारी को। क्रूर कर्मा शतानीक के द्वारा आंखों के सामने पिता की हत्या, राज्य में लट-पाट, विधर्मी रथिक की भोगवासना से विदग्ध माता की मृत्यु (जिह्वा खींचकर स्वयं प्राण त्याग कर सतीत्व की रक्षा), सेठानी द्वारा प्रताड़ना-माथा मुड़वाना, शरीर में वेड़ियों का पड़ना-इन सबसे वह राजबाला भयाक्रान्त हो गयी थी बंर २३, बंक ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524594
Book TitleTulsi Prajna 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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