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________________ - अचानक प्रभु को देखा- - बस क्या था, आशा की चिनगारी जल गई। इस अवस्था का सुन्दर वर्णन कवि महाप्रज्ञ ने किया है— खेदं स्वेदो बहिरपनयञ्जात आकस्मिकेन, प्रोल्लासेनाऽभ्युदयमयता दर्शनाद् विश्वभर्तुः । कामं भ्रान्तां किमपि किमपि प्रस्मरन्तीं स्मरन्तीं स्वस्थां चक्रे पुलकिततनुं चन्दनां स्मेरनेत्राम् ॥' २८ अर्थात् विश्वभर्ता भगवान् महावीर के दर्शन से चन्दनबाला को अकस्मात् जो अपार हर्ष हुआ, उससे उसके शरीर से स्वेद टपकने लगा । उस समय ऐसा लगता था, मानो वह स्वेद चन्दनबाला के अन्तवर्ती संताप को बाहर खींच लाया है । जो कुछ क्षण पहले दिङ्मूढ़ सी बनी हुई, अर्ध-विस्मृति स्थिति में डुबकियां लगा रही थी, अब वह स्वस्थ हो गई । उसका शरीर पुलकित हो उठा और आंखें विकसित हो गईं । जब अपनी आंखों के सामने सहसा आशा-महल ढह जाए तो व्यक्ति की, भक्त की कैसी स्थिति हो जाती है - इसका मनोविश्लेषणात्मक चित्र का उपस्थापन महाकवि ने किया है । महावीर द्वार पर आकर भी भिक्षा लेना तो दूर रहा बिना कुछ कहे ही लौट गए। बस चन्दनबाला की क्या दशा हो गयी यह तो सहृदय चेतन प्राणी अथवा महाप्रज्ञ जैसे संवेदनशील महाकवि ही समझ सकता है वाणी वस्त्रान्न च बहिरगाद् योजितौ नापि पाणी पाञ्चालीवाऽनुभवविकला न क्रियां काञ्चिदार्हत् । सर्वेरङ्गः सपदि युगपन्नीरवं स्तब्धताऽऽप्ता वाहोऽश्रृणामविरलमभूत् केवलं जीवनाङ्कः ॥ अर्थात् चन्दनबाला के मुंह से उस समय न शब्द निकल पाया और न उसके हाथ ही जुड़ पाए । पुतली की तरह वह ऐसी अनुभव - शून्य हो गयी कि उसमें कुछ क्रिया करने की क्षमता भी नहीं रही। उसके समस्त अंगों में एक साथ तेजी से निस्तब्धता छा गई कि उसकी आंखों में अजस्र बहने वाले आंसू ही उसके के चिह्न जान पड़ते थे । जीवित होने चन्दनबाला के अनेक रूपों का सुन्दर निरूपण महाप्रज्ञ ने किया। के रूप में उसका हृद्य-लावण्य सहज-संवेद्य है। आंसुओं के द्वारा प्रभु के पास संदेश भेजती हुई दिखाई पड़ती है। आंसू के अभाव में जो भगवान् की धारा में बहकर पुनः वापस लौट आए। चिरप्रतीक्षित आशा पूर्ण हो गयी । भगवान् का अभिग्रह भी पूर्ण हुआ और चन्दनबाला कृत्पुण्य हो गई । उसका आंगन रत्नों की बरसात से ऊबड़-खाबड़ सा हो गया शिशकी भरती हुई, दधिवाहन कन्या महावीर लौट गए थे आंसू कन्या शब्दों के द्वारा उत्कृष्ट रूप में वे ही आंसुओं ४७२ Jain Education International सद्योजातं स्थपुटमखिलं प्रागणं रत्नवृष्ट्या त्रुट्यबन्धं गगनपटलं जातमेतत् प्रतीतम् । तर्कक्षेत्रं भवतु सुतरामेष योगानुभावस्तद्भाग्याभ्रे रविरुद्गमत् स्पष्टमद्यापि तत्तु ।। " For Private & Personal Use Only तुलसी प्रशा www.jainelibrary.org
SR No.524594
Book TitleTulsi Prajna 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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