SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ न तो साम्राज्ञी पद की अधिकारिणी होती और न ,उसे भरत जैसे चक्रवर्ती पुत्र भी प्राप्त होता। उर्वशी जब कार्तिकेय के उद्यान में शाप-ग्रस्त होकर लता के रूप में परिणत नहीं हुई होती तो मात्र वह संसार में काम की पिटारी के रूप जानी जाती। वसन्तसेनापंक सरोवर (वेश्याकुल) में भी जन्म लेकर उस महा सहस्रार की ओर विकसित होती हुई, चारित्रिक विकास को प्राप्त करती हुई वैसे पद को न प्राप्त कर सकती जो वेश्या के लिए सर्वथा दुर्लभ है। पार्वती हिमालय की कुमारी कन्या न तो जगदम्बा ही बनी होती और न शिव जैसे पति ही उसे प्राप्त हुआ होता। यह सब कल्पना का खेल । जो कोई कल्पना के सत्सागर में निमज्जित हुआ, बस समझो कि स्वयं तो पार हो ही जाता है, अपने पीछे भी महापथ यात्रियों के लिए प्रकृष्ट-पाथेय छोड़ जाता है जिसका आश्रय लेकर अनन्त काल तक रसिक समुदाय आनन्द के महासागर में गोता लगाते रहता है। दुनिया का जहर भी कल्पना का संस्पर्श पाकर अमृत बन जाता है। कल्पना के द्वारा ही कवि अपनी कृति को, भक्त अपने भगवान् को सर्वांग सुन्दर बनाने का प्रयास करता है चित्रे निवेश्य परिकल्पितसत्त्वयोगारूपोच्चयेन मनसा विधिना कृता नु । स्त्रीरत्नसृष्टिपरा प्रतिभाति सा मे धातुर्विभुत्वमनुचिन्त्य वपुश्च तस्याः ॥ अर्थात् ब्रह्मा ने जब शकुन्तला को बनाया होगा तब पहले उसका चित्र बनाकर या मन में संसार की सभी सुन्दरियों के रूपों को इकट्ठा करके उसमें प्राण डाले होंगे, क्योंकि ब्रह्मा की कुशलता और शकुन्तला की सुन्दरता दोनों पर बार-बार विचार करने से यही जान पड़ता है कि यह कोई निराले ही ढंग की सुन्दरी उन्होंने बनायी है । यह सब कल्पना का ही वैभव है कि शकुन्तला विश्वसुन्दरी की श्रेणी में प्रतिष्ठित हो गयी। विवेच्य कवि महाप्रज्ञ कल्पना-शक्ति के समर्थ धारक सारस्वत हैं। दुनिया की विकराल वस्तुएं भी इनकी कला, कल्पना की तुलिका में रमणीय बन गयी, सहज संवेद्य बन गयी हैं। रत्नपाल चरित में कवि की कल्पना शक्ति का उत्कृष्टतम रूप का निदर्शन मिलता है। प्रथम सर्ग में स्वर्गीय युवती के द्वारा रत्नपाल के गले में फेंकी गयी माला कितनी सुन्दर है । वह माला राजा रत्नपाल के गले में यशोलता की भांति सुशोभित हो रही है सद्यस्तदानीं गगनस्थितायाः कस्याश्चिदुत्साह परायणायाः कराब्जमुक्ता नवपुष्प माला यशोलतेवास्य रराज कण्ठे ॥२५ तत्काल उसी समय गगन में स्थित किसी उत्साह परायण युवति के हाथ से डाली हुई नए फूलों की माला राजा के गले में यशोलता की भांति सुशोभित होने लगी। ४७० तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524594
Book TitleTulsi Prajna 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy