________________
६. विराट् कल्पना
कल्पना जिसकी जितनी विराट् होगी उतना ही वह सौन्दर्य-बोध के शाश्वत
आधार
पर ही व्यक्ति अतिलौकिक संसार में जितने भी ज्ञान
का अवश्य योगदान रहता
सागर का अवगाहन कर सकता है । कल्पना और अतिरमणीय तत्त्वों का साक्षात्कार कर लेता है । विज्ञान के तत्त्व हैं, उनकी प्राप्ति में कहीं न कहीं कल्पना है । कुरूप वस्तु में भी परमरमणीय का संधान, निर्जीव में भी सजीव का दर्शन, असत् में सत् का विवेक कल्पना का ही परिणाम है। गंगा की धारा प्रवाहमान है, मात्र जल का प्रवाह। जिसकी कल्पना-शक्ति सशक्त है वह उस धारा में गंगा माता का, चिररमणीया युवति का श्वेतवसना बाला का साक्षात्कार कर लेता है लेकिन कल्पना विहीन के लिए वही गंगा मातां केवल जल का प्रवाह । एक उसी के तट पर परमविभूति को प्राप्त कर जीवन धन्य हो जाता है दूसरा केवल जलपान करके ही लौट जाता है । इसलिए सौन्दर्य बोध के लिए जितना शास्त्रीय ज्ञान, संस्कार आदि आवश्यक है उतना ही कल्पना ।
आचार्य शिवबालक राय ने कल्पना की महनीयता को उद्घाटित करते हुए कहा है - 'तर्क वितर्क, संकल्प-विकल्प और लाभ-हानि का विचार बुद्धि क्षेत्र के अन्तर्गत है, परन्तु बिम्ब विधान के द्वारा रमणीय भाव का सृजन कल्पना के अन्तर्गत । मन की वह शक्ति जो परिचित वस्तु में अभिनवता देखती है, नवीन लोक का सृजन करती है, भविष्य का स्वप्न देखती है, चित्रमयी भाषा में अपने को व्यक्त करती है, सुन्दरता का भावन कर आनन्दित होती है, कल्पना है । स्वर्ग-नरक, देवता-दैत्य आदि कल्पना लता के मधुर फल हैं, कला के माध्यम से कल्पना चिर सुन्दर का सृजन करती है । चिर सुन्दर चिर सुखकर हो जाता है । कलागत या प्रकृतिगत सुन्दरता की अनुभूति के लिए कल्पना तत्त्व का रहना अनिवार्य है । इसके अभाव में अलका बालुका, कैलास उजला टीला और कामरूप मेघ, भाप और धुएं का जमाव दीख पड़ेगा । २२
वस्तु का रूप जब हमारी कल्पना में प्रवेश तरंगित होने लगती हैं । कल्पना तत्त्व के अभाव में सकता।"
करता है तो सौन्दर्य की ऊर्मियां सौन्दर्य का भावन नहीं किया जा
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि कल्पना सौन्दर्य बोध के लिए परमावश्यक संसाधन है । जितने भी महान कवि हुए, उनकी महानता में, उनकी सार्वजनीनता में कल्पना की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है । कालिदास इसलिए विश्वबन्ध बन गए कि संसार की विरस वस्तुएं भी उनकी कल्पना सागर में स्नात होकर सरस बन गयी । महाभारत का कामुक, लम्पट दुष्यन्त महाकवि की कल्पना कला का संस्पर्श पाकर चक्रवर्ती सम्राट् दुष्यन्त, धीरोदात्त नायक दुष्यन्त और प्रजावत्सल दुष्यन्त बन गया । क्रूर शाप भी महर्षि कालिदास की कला में आकर वरदान से भी अधिक श्रेयासाधक बन जाता है । यदि महर्षि दुर्वासा ने शकुन्तला को शाप नहीं दिया होता तो न तो शकुन्तला के पूर्व कृत पाप कर्मों का प्रक्षालन होता, न संस्कारों का रेचन ।
तब वह
४६९
खण्ड २२, अंक ४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org