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________________ अपना मत रखते हुए दिखाई पड़ते हैं। जैसे एव, इवादि निपातों को श्री जयकृष्ण अवधारण, सादृश्यादि अर्थों का द्योतक मानते हैं जो कि वैयाकरणों को इष्ट है, जबकि न्यायपरम्परा एवादि निपातों को अवधारणादि अर्थों का वाचक मानती है। एव का अर्थ है व्यवच्छेद । उसी को शक्य कहते हैं । अतः एव का शक्यतावच्छेदक व्यवच्छेदकत्व ही कहलाता है । व्यवच्छेद का अर्थ विरह है___ तस्य व्यवच्छेदकत्वमेव शक्यतावच्छेदकं व्यवच्छेद: शक्यो व्यवच्छेदो विरहः । ११ वृत्ति भेद वृत्ति भेदों के निरूपण के प्रसङ्ग में श्री जयकृष्ण ने प्राचीन नैयायिकमतानुरूप शक्ति (अभिधा) और लक्षणा रूप दो भेदों को ही वृत्ति में परिगणित किया है और शक्ति का स्वरूप 'अस्मात्पदादय मर्यो बोद्धव्य : अथवा इदं पदमिममर्थ बोधयतु' इस प्रकार बताया है, जबकि वैयाकरण शक्ति और व्यञ्जना को वृत्ति भेदों के रूप में अङ्गीकार करते हुए वाच्यवाचकभाव को शक्ति मानते हैं। शाब्दबोध शाब्दबोध के प्रसङ्ग में श्री जयकृष्ण ने नैयायिकमत का समर्थन किया है । इनके अनुसार शाब्दबोध की प्रक्रिया में सर्वप्रथम पदज्ञान रूप करण की अपेक्षा होती है। तदनन्तर शक्ति इत्यादि वृत्तियों की सहायता से पदार्थज्ञान रूप व्यापार के माध्यम से शाब्दबोध रूप फल की निष्पत्ति होती है, जबकि वैयाकरण वृत्तिविशिष्ट पदज्ञान को शाब्दबोध रूप कार्य का कारण मानकर स्वमत में लाघव दर्शाते हैं। श्री जयकृष्ण नैयायिक मत का अवलम्बन करते हुए प्रथमान्तपदार्थमुख्य विशेष्यक शाब्दबोध मानते हैं, जबकि वैयाकरण धात्वर्थमुख्य विशेष्यक शाब्दबोध स्वीकार करते हैं । १२ प्रसङ्गवश यहां शाब्दबोध के कतिपय उदाहरण वादत्रय--- नैयायिक, वैयाकरण और मीमांसक-की दृष्टि से प्रस्तुत करना उचित होगावादत्रय नैयायिकों के अनुसार 'घटमानय' यहां घट पद से घटद्रव्य की स्मृति होती है । द्वितीया विभक्ति द्वारा कर्मत्व की स्मृति होती है। आङ् पूर्वक नीन धातु से 'अभिमत देश में रहने वाला जो संयोग, उसके अनुकूल जो व्यापार, उस व्यापार का जनक जो व्यापार, तद्रूप आनयन' ऐसी स्मृति होती है। लिङ् द्वारा इष्टसाधनत्व, कार्यत्व और कृति की स्मृति होती है। इस प्रकार इस वाक्य से घटनिष्ठकर्मत्वानुकूलं यदिष्टसाधनतावत्कार्यतावच्चानयनं तदनुकूल कृतिमान् ।" ऐसा शाब्दबोध होता है । वैयाकरणों के अनुसार प्रकृत वाक्य स्थल से 'घटकर्मकानय नानुकूलवर्तमानकालिकव्यापारः' ऐसा तथा मीमांसकों के अनुसार 'घटकमिका आनयनानुकूलिका वर्तमानकालिका भावना' ऐसा शाब्दबोध होता है । नैयायिकों के अनुसार 'करोति' यहां कृ धातु से कृति की स्मृति होती है । आख्यात से लक्षणा द्वारा आश्रयत्व की स्मृति होती है। उस आश्रयत्व का आश्रयत्व संबंध से कर्ता में अन्वय होता है। इस प्रकार इस वाक्य से 'कृत्याश्रयत्वाश्रयः बड २३, बंक १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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